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________________ पन्द्रहवां अध्याय [ ५९५ ] श्रालोक का लोलुप पतंग, तीन राग में ऐसा डूब जाता है कि उसे अपने जीवन का भी विचार नहीं रहता। जैसे वह दीपक की लौ पर आकर गिरता है और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार जो जीव चतु-इन्द्रिय के वश में होकर रूप लोलुपता धारण करते हैं, उनकी भी ऐसी ही दुर्दशा होती है । सौन्दर्य में अत्यन्त भासक्ति वाला पुरुष असमय में ही मृत्यु का शिकार हो जाता है। यद्यपि अनुक्रम का विचार किया जाय तो पहले स्पन्द्रिय है और व्यतिक्रम से पहले श्रोत्रेन्द्रिय है। तथापि यहां सर्व प्रथम चतु-इन्द्रिय की लोलुपता की गति चतलाई गई है। उसका कारण यह है कि चक्षुन्द्रिय में और इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक विष रहता है । चक्षु-इन्द्रिय ही प्रायः अन्य इन्द्रियों को उत्तेजित करती है। चतु-इन्द्रिय अधीन हो जाय तो शेष हन्द्रियों का अधीन करना सरल होता है। इसी लिए सर्वप्रथम यहां चतु को विषय का वर्णन किया गया है । मुमुक्षु पुरुषों को अपनी साधना को सफल करने के लिए रूप-विषयक श्रासक्ति का त्याग करना चाहिए। स्त्री श्रादि के रूप की और दृष्टि नहीं करनी चाहिए और कदाचित् अचानक चली जाय तो उले तत्काल हटा लेनी चाहिए । जैसे सूर्य की ओर देखकर तत्काल दृष्टि हटाली जाती है, उसी प्रकार रूप-सौन्दर्य की ओर से भी तत्काल दृष्टि फेर लेनी चाहिए। मूलः-सद्देसु जो गिद्धि मुवेइ तिव्वं, अकालिनं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिये ब्व मुद्धे, __सद्धे अतित्ते समुवेइ मच्चुं ॥ १५॥ छाया:-शव्देषु यो गृद्धि मुपैति तीनां, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशमू । ___ रागातुरो हरिणमन इव मुग्धः, शन्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम् ॥ १५ ॥ शब्दार्थः-जैसे राग से आतुर, हिताहित का भान न रखने वाले, अर्थात् मूढ, और शब्द में अतृप्त हिरन मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी प्रकार जो पुरुष शब्दों में तीन आसक्ति रखता है वह अकाल में ही मृत्यु को प्राप्त होता है। भाष्यः-चनु-इन्द्रिय की लोलुपता ले होनेवाले पाप का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् यहां श्रोत्रन्द्रिय संबंधी पाप और अपाप का दिग्दर्शन कराया गया है। व्याध के मनोहर गीत श्रवण में लोलुप होकर सर्प जैसे मृत्यु का अतिथि बनता है। इसी प्रकार जो जीव श्रुतेन्द्रिय में पासक होता है और उस प्रासासि के श्राधिक्य से अपने हित-अहित वो भी भूल जाता है उसे भी अकाल मृत्यु को प्राप्त होना पडता है। अतएव शब्द सम्बन्धी प्रासक्ति का त्याग करना चाहिए । मनोज्ञ शब्द सुनने में भातुरता और अमनोज्ञ शब्द सुनने में विकलता का त्याग करके समभाव पर्वत साधना करने से ही श्रात्म शुद्धि होती हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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