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मनोनिग्रह
असत्य रूप भी नहीं वह असत्यामृषा मनोयोग कहलाता है । इसे ग्रनुभय रूप मनोयोग भी कहते हैं । सर्वज्ञ भगवान के द्वारा प्ररूपित वस्तुत्व का यथार्थ चिन्तन सत्यमनोयोग और इससे विपरीत चिन्तन असत्य मनोयोग है । जहां इन दोनों बातों की कल्पना नहीं होती वह अनुभव मनोयोग कहलाता है । जैसे--' देवदत्त, पुस्तक. लाओ । ' इस प्रकार के चिन्तन में सत्य-असत्य की कल्पना नहीं की जा सकती । इससे आराधक, विराधक का भी विकल्प नहीं उठता । श्रतएव इस प्रकार का विचार श्रसत्यामृषा मनोयोग है । यह चौथा विकल्प व्यवहारनय से समझना चाहिए | निश्वयनय से यह भी सत्य या असत्य में समाविष्ट हो जाता है ।
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उल्लिखित चार मनोयोगों को रोकना मनोगुप्ति है । मगर योग का निरोध चौदहवें गुणस्थान में होता है, उससे पहले नहीं । अतएव पहले असत्य मनोयोग का और उभय रूप ( सत्य- मृषा ) मनोयोग का त्याग करके गुप्ति की आराधना करनी चाहिए ।
मूल :- संरभसमारंभ, आरंभम्मि तव य ।
मणं पवत्तमाणं तु, नियत्तिज्ज जयं जई ॥ ४ ॥
छाया:-संरम्भे समारम्भे, श्रारम्से तथैव च ।
मनः प्रवर्त्तमानं तु निवर्त्तयेत् यतं यतिः ॥ ४ ॥
शब्दार्थ :- हे इन्द्रभूति ! मुनि संरंभ में, समारंभ में और आरंभ में प्रवृत्त होने वाले मन को यतनापूर्वक निवृत्त करे ।
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भाप्यः- - पूर्व गाथा में मनोगुति के भेदों का निरूपण करके यहां यह प्रतिपादन किया गया है कि इन को किस विषय में प्रवृत्त होने से रोकना चाहिए।
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'प्राणव्य परोपणादिषु प्रमादवतः प्रयत्नावेशः संरम्भः । ' अर्थात् प्रमादी जीव का प्राणव्ययरोपण ( हिंसा) आदि असत् कार्यों में प्रयत्न का प्रवेश दोन
संरम्भ कहलाता है ।
'साधनाभ्यासीक समारम्भः ।' अर्थात् हिंसा श्रादि के साधन जुटाना समारंभ कहलाता है ।
प्रकयः आरम्भः । ' अर्थात् हिंसा आदि सप कार्य को शुरू कर देना प्रारंभ कहा गया है
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तात्पर्य यह है कि किसी भी पाप कार्य को करते समय तीन अवस्थाएँ होती | सर्वप्रथम जीव पाप कर्म करने का संकल्प करता है । संकल्प करने के पश्चात उस कार्य को सम्पन्न करने के लिए यथोचित सामग्री जुटाता है और फिर उसे आरंभ करता है । यहीती समारंभ और प्रारंभ कहलाती हैं । यद्यपि यह अवस्थाएँ मानसिक भी होती है, वाचिक मी होती हैं और कार्यिक भी होती है अर्थात मन से संसार आरंभ किया जाता है, यंत्र से