________________
>
[ ५५९ ]
पन्द्रहवां अध्याय
प्रज्ञाविचय नामक धर्म ध्यान कहलाता है |
श्रथवा - हे जीव ! जगद्बन्धु, जगत्पिता, परम करुणाकर जिन भगवान् ने आरंभ, परिग्रह आदि को त्याज्य बतलाया है भगवान् ने हिंसा, असत्य आदि पाप को त्यागने की आज्ञा दी है। फिर भी तू आरंभ - परिग्रह में पड़ा है और पापों ले निवृत्त नहीं होता ! तुझे अपने परम कल्याण के लिए भगवान् की आशा के अनुसार चलना चाहिए । इस प्रकार विचार करना श्राशावित्रय धर्मध्यान है ।
9
( ख ) अपायविचय धर्मध्यान -- मिध्याल, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से होने वाले श्रास्त्रव से इस लोक और परलोक में होने वाले कुफल का विचार करना । जैसे 'भयंकर बीमारी में अन्न की इच्छा करना हानिकारक है । उसी प्रकार राग-द्वेष आदि जीव को भव भव में हानिकारक हैं । जैसे अग्नि से ईंधन भस्म हो जाता है उसी प्रकार द्वेष के कारण श्रात्मा के समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं और उसे घे'र संताप होता है । राग-द्वेष के जाल में फंसा हुआ जीव न इस लोक में चैन पाता है और न परलोक में सुगति का पात्र होता है ।
राग और द्वेष पर विजय प्राप्त न की जाय और उन्हें बढ़ने दिया जाय तो संसार की परम्परा बढ़ती है ।
मिथ्यात्व से जिस की मति मूढ़ हो रही है ऐसा पापी जीव इस लोक में भी अयंकर दुःख का पात्र होता है और परलोक में नरक आदि के कष्ट पाता 1
हिंसा, असत्य, चोरी आदि पापों में प्रवृती करने वाला पातकी पुरुष इसी लोक में शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दनीय होता है, अविश्वास का भाजन होता है, व्याकुलं रहता है, शंकितचित्त रहने के कारण श्रशान्त-चित्त रहता है, राजा के द्वारा दंड का पात्र होता है । परलोक में भी उसकी घोर दुर्गति होती है ।
प्रमाद के कारण जाव कर्त्तव्य कर्म में प्रवृत्ति नहीं करता, अकर्त्तव्य कर्मों में प्रवृत्त होता है, अतएव प्रमाद मनुष्य का भयानक शत्रु है । वह अनेक प्रकार के कष्टों का जनक है । महापुरुषों ने उसे त्याज्य बतलाया है ।
अनन्त शक्ति से सम्पन्न श्रात्मा, अनन्त सुख का अनुपम धाम होने पर भी आस्रव के ही कारण घोर दुःख सहन करता है । श्रास्रव ही भव भ्रमण का कारण है । श्रस्रव से उपार्जित कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा को नाना गतियों के दुःख सहन करने पड़ते हैं । श्रस्रव की सरिता में चेतना के स्वाभाविक गुण बह जाते हैं ।
कायिकी श्रादि क्रियाश्रों में वर्त्तमान जीव भी इस लोक एवं परलोक में अनेक प्रकार की वेदनाएँ भोगते हैं । जिन भगवान् द्वारा निरुपित पचीस क्रियाएं संसार को बढ़ाने वाली, और दुःख को बढ़ाने वाली हैं ।
इस प्रकार चिन्तन करना अपाय विचय धर्मध्यान कहलाता है । अथवा करुयापरायण अन्तःकरण से जगत् के जीवों के अपाय का चिन्तन करना अपायविar
1