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________________ २॥ करत। ५५० । मनोनिग्रह अपने घोर पापों के लिए पश्चात्ताप नहीं करते। गैद्रध्यानी जीव अत्यन्त कठोर अन्तःकरण वाला होता है। वह दूसरे को दुःख पहुंचाकर सुख का अनुभव करता है । दूसर पर विपत्ति आ पड़ती है तो उसे प्रसमता होती है । हिंसा आदि पापों का सेवन करने में उस श्रानन्दानुभव होता है। वह न इस लोक से डरता है, न परलोक की परवाह करता है। उसके चित्त में दया. परदुःखकातरता प्रादि सदवृत्तियां नाम मात्र को भी नहीं होती। वह पाप करन में धृष्ट होता है। रौद्रभ्यान अविरत जीवों को होता है। देशविरति को धनादि के संरक्षण श्रादि फे निमित्त से कभी-कभी गेंद्रध्यान हो सकता हो पर वह इतना तीन नहीं होता जो नरक आदि दुर्गति का कारण हो सके। (३) धर्मध्यान-सुत्रार्थ की साधना करना, पंच महाव्रत धारण करना, बन्ध और मोक्ष एवं संसारी जीवों की गति-श्रागति का विचार करना, इन्द्रिय-विषयों से निवृत्त होने की भावना होना, हृदय में दयालुता दोना, तथा इन लव प्रशस्त कार्यों में अन की एकाग्रता होना, धर्मध्यान है। धर्मध्यान भी चार प्रकार का है-(१) आहाविचय (२) अपाकविचय (३) विपाकविचय और ( ४ ) संस्थानविचय । क आशविचय-संसारी जीवों को संसार के महान, भयंकर जन्म-जरामरणश्रादि की यातनाओं से छुड़ाने वाली, परम मंगलमयी, सद्भूत अर्थों को प्रकाशित करने वाली, निदोप, नय और प्रमाग के द्वारा समग्र वस्तुस्वरूप का बोध देने घाली, एकान्तवादियों द्वारा कदापि पराभूत न होने वाली, विवेकी पुरुषों द्वारा श्रद्धा करने योग्य, मिथ्या दृपियों द्वारा दुईय, वीतराग और सर्वश पदवी को प्राप्त श्रीजिनेन्द्र देव की आज्ञा (कथन ) अगर योग्य प्राचार्य, विद्वान के प्रभाव से समझ में न आंध, बुद्धि की मंदता या क्षयोपशम की न्यूनता के कारण समझ में न श्रावे, अथवा अत्यन्त गहन होने के कारण, अनुभव-गम्य होने कारण या हेतु एवं उदाहरण की वहां तक पहुंच न होने के कारण समझ में न यावे, तब भी उस पर श्रद्धा करना चाहिए। ऐसे प्रसंग पर चित्त को दोलायमान न करके विचार करना चाहिए कि यह मचन सर्वत, वीतराग और हितोपदेशक जिनेन्द्र भगवान के है, अतएव सर्वोश में सत्य ही है । क्योकि 'नान्यथा वादिनो जिनाः' अर्थात् जिन भगवान् अन्यथावादी ही नहीं सकते। निष्कारण उपकार करने वाले, जगत् में प्रधान, तीन काल और तीन लोक को दस्तामलकवत् जानने वाले, राग और द्वेष के सम्पूर्ण विजेता, कृतकृत्य घोजिनम्बर देव के पचन सत्य ही होते हैं। उनके वचनों में असत्य का कुछ भी कारण नहीं है। इस प्रकार जिन-वचन में खुद प्रद्धा रम्नना, श्रद्धापूर्वक उनका चिन्तन-मनन्त व.रना, गूह तस्य में भी सन्देद न करना और उन्हीं वचनों में मन को एकान करना
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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