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________________ ५३४ वैराग्य सम्बोधन गलियों की प्राप्ति होती है और वे गतियां श्रत्यन्त भयंकर हैं । पहले इसका विवेचन आचुका है। मूलः - श्रापगुत्ते सया दंते, छिन्नसोए णासवे | जे धम्मं शुद्धमाक्खाति, पडिपुराणमणेलिसं ॥ १७ ॥ छाया: - श्राप्मगुप्तः सदा दान्तः, छिन्नस्रोताऽनासवः । यो धर्म शुद्धमाख्याति, प्रतिपूर्ण मनीदृशम् ॥ १७ ॥ शब्दार्थ:--मन, वचन और काय से आत्मा को पाप से बचाने वाला, जितेन्द्रिय, संसार के स्रोत को बंद कर देने वाला, आस्रव से रहित महा पुरुष पूर्ण शुद्ध आर अनुयम धर्म का उपदेश देता हैं । भाष्यः - श्रनादि काल से अब तक असंख्य धर्म और धर्मप्रवर्त्तक भूमंडल में श्रवतीर्ण हुए हूँ । सबने अपने-अपने विचार के अनुसार धर्म का कथन किया और जनता को उसी धर्म के अनुसरण का उपदेश दिया । पर उनमें से श्राज अधिकांश धर्मो और धर्मोपदेशकों का नाम भी कोई नहीं जानता । कितनेक ऐसे हैं जिनका नाम ही शेष रह गया है और इतिहास के विद्यार्थी ही उन्हें जानते हैं । इसका कारण है ? क्या इसका कारण यह है कि वे धर्मप्रवर्त्तक पूर्णशानी नहीं थे । अपूर्ण ज्ञानवान्नू होने के कारण उनके द्वारा प्ररूपित धर्म भी अपूर्ण रहा । जो धर्म तीन लोक में श्रीर प्राणी मात्र के लिए समान रूप से उपयोगी होता है वही पूर्ण कहलाता है । जिस धर्म में अधर्म का लेशमात्र भी मिश्रण नहीं होता और जो सवस्त दोष संरक्षित होता है वह धर्मशुद्ध कहलाता 출 1 इस प्रकार जो धर्म पूर्ण है अर्थात सब जीवों का हितकारी और आत्मा को पूर्ण रूप से पवित्र बनाने वाला है, तथा सर्वथा निर्दोष है, और दोनों विशेषणों से मुक्त होने के कारण जो अनुपम हैं, वही सत्य धर्म है । वही प्राणियों को जन्म- जरा, मरण आदि के दुःखों से मुक्त कर सकता है । ऐसे धर्म की प्ररूपणा करने का अधिकारी कौन है, यह सूत्रकार ने यहां बतलाया है । जो श्रात्मगुप्त, सदा, दान्त, छिन्न स्रोत और नास्रव होता है वही महात्मा शुद्ध और पूर्ण धर्म की प्ररूपणा कर सकता है । मन, वचन और काय से आत्मा को गोपने वाला अर्थात् इनसे होने वाले सावध व्यापार को रोक देने वाला, इन्द्रि यो को और मन को दमन करने वाला, कर्मों के श्रागमन के द्वारा भूत श्रास्रव को बंद कर देने वाला, अथवा कर्मास्रय के कारण भूत परिणाम रूपी स्रोत से रहित महापुरुष ही धर्मदेशना का अधिकारी हैं। 1 उपर्युक्त गुण जिनमें विद्यमान नहीं है, अर्थात् जो पाप से स्वयं उपरत नहीं हुए हैं, जिनकी इन्द्रियां और जिनका मन वश में नहीं हुआ है और जिन्होंने श्राव रूपी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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