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________________ Ramanand चौदहवा अध्याय है। उन साधनों का सदुपयोग करना या दुरुपयोग करना मनुष्य की सात वा अलत् भावना पर निर्भर है। यदि विज्ञान के साधनो का दुरुपयोग कोई करता है तो इसमें विज्ञान का क्या दोष है। . इसका समाधान यही है कि प्रथम तो संहार के साधनों का आविष्कार करना ही विज्ञान की भयंकर भूल है। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्रायः अधिक से अधिक भीषण संहार के साधनों की तलाश करने में ही व्यन है । दूसरे, बालक के हाथ में विष की गोली देने वाले ज्ञानवान् पुरुष को जो दोष दिया जा सकता है, वही दोष सर्वसाधारण जनता को संहार के साधन देने वाले वैज्ञानिकों को दिया जाना चाहिए। वे जगत् को जो दान दे रहे हैं, उससे उन्हें कृतान्त का काका कहा जा सकता है। सारांश यह है कि वास्तव में विज्ञान वह है जो मनुष्य को उसकी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठाता है, जगत् के मंगल की वृद्धि में सहायक होता है और मनुष्य की आत्मीयता की भावना को विस्तृत बनाता है । जो विज्ञान इससे विपरीत कार्य करता है वह विकृत ज्ञान है-कुज्ञान है। उससे जंगत् का अमंगल होना निश्चित है । ऐसे कुशान से अज्ञान श्रेष्ठ है। जिन्हें सौभाग्यवश ज्ञान की प्राप्ति हुई है, उन्हें मैत्री भावना के विस्तार कर प्रयत्न करना चाहिए । मैंनी भावना का प्रसार ही अहिला का महत्व है। इसीलिए शास्त्रों का प्रतिपाद्य मुख्य विषय अहिंसा है। अहिंसा से ही जगत् का विस्तार है। मूलः-संबुज्झमाणे उ णरे मतीमं, पावाउ अप्पाण निवहएजा हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महन्भयाणि२६ छाया:सचुध्यमानस्तु नरो मतिमान, पापादात्मानं निवर्तयेत् । • हिलाप्रसूतानि दुःखानि मत्वा, वैरानुसन्धीनि महाभयानि ॥ १६ ॥ __ शब्दार्थः-तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान पुरुष, हिंसा से उत्पन्न होने वाले दुःखों को कर्म-वन्ध का कारण तथा अत्यन्त भयंकर मानकर पाप से अपनी आत्मा को हटाते है। भाष्यः--माथा का भाव स्पष्ट है जिसे सभ्य बोधि की प्राप्ति हुई है उसे आत्मा को पापों से निवृत्त करना चाहिए । जो अपनी आत्मा को पाप से निवृत्त नहीं फरता उसका बोध-शान-निरर्थक है। जो हित की प्राप्ति और भहित के परिहार में पुरुष को समर्थ नहीं बनाता उस शान से क्या लाभ है। हिंसा के फल अत्यन्त दुःख रूप होते हैं। हिंसा से वैर का अनुबंध होता हैं। एक जन्म में जिसकी हिंसा की जाती है वह अनेक जन्मों में उसका बदला लेता है। धर्मकथानुयोग के शास्त्रों में इसके लिए अनेक कथानक विख्यात हैं। हिंसाजन्य पाप महान भयकारी होते हैं । हिंसा से नरक, तिर्यञ्च आदि अशुभ
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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