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________________ चौदहवाँ अध्याय [ ५२१ ॥ क्षीण करता चलता है और अन्त में अज्ञान से सर्वथा मुक्त हो जाता है । इसके विपरीत्य प्रज्ञान की अस्वीकृति से मनुष्य अज्ञान के गहन से गहनत्र अंधकार में ड्रयता जाता है। । अतएव यह सर्वथा उचित और वांछनीय है कि मनुष्य अपने अभिमान का भार अपने सिर से उतार फेंके और स्वस्थ होकर अपनी वास्तविक स्थिति का विचार करे । वह अपनी मर्यादाओं का आकलन करे और अपने प्रत्यक्ष पर ही अवलंवित न रहकर आगम एवं अनुमान का अरश्रय लेते हुए अपनी बौद्धिक परिधि में विस्तीर्णता लाने की चेष्टा करे। श्रापम को प्रमाण मानने में एक अड़चन उपस्थित की जाती है । संसार में एक दूसरे के विरुद्ध वस्तु-तत्वों का निरूपण करने वाले इतने अधिक श्रागम हैं कि किस पर श्रद्धान किया जाय और किल पर श्रद्धान न किया जाय ? सभी भागम सत्य का निरूपण करने का दावा करते हैं और अपनी प्रामाणिकता की मुक्त कंठ.से उद्घोषणा करते हैं। फिर भी एक पूर्व को जाता है तो दूसरा. पच्छिम को । ऐसी अवस्था में किस प्रायम का अनुसरण करना चाहिए ? इसी उलझन में पड़कर किली ने कहा भी है तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायाम् ,महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥ अर्थात्-तर्क स्थिर है, शास्त्र भिन्न-भिन्न हैं और एक ऐसा कोई मुनि नहीं है जिसके बचन प्रमाण माने जाएँ। धर्म का तत्व अंधकार से आच्छादित है । ऐसी दशा में, बही मार्ग है जिस पर बहुत लोग चलते हैं या बड़े लोग चलते हैं। खेच पूछो तो यह कथन, कथन करने वाले की बुद्धि संबंधी दरिद्रता को चूचित करता है । जो मनुष्य विवेकशील है वह अनेकों की परीक्षा करके उसमें से एक को छांट सकता है । वह सत्य और असत्य का भेद कर सकता है। जब मनुष्य व्यावहारिक बुराई-भलाई का निर्णय अपने अनुभव से कर सकता है तो धार्मिक बुराई-भलाई की पहचान क्यों नहीं कर सकता? .. तर्क जब निराधार होता है, उसका एक निश्चित लक्ष्य नहीं होता तभी वह शस्थिर होता है । लक्ष्य के अभाव में वह इधर-उधर भटकता फिरता है। किन्तु जक लक्ष्य स्थिर हो जाता है तब तर्क अप्रतिष्ठ नहीं रहता। . . . तर्क का लक्ष्य क्या है ? उसे कहां पहुंच कर स्थिर हो जाना चाहिए ? निस्तल्देह वीतराग और सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित तत्व ही तर्क का लक्ष्य होना चाहिए । उन तत्वों को वुद्धिगम्य बनाने में ही तर्क की सार्थकता है। ... वीतराग और सर्वश पुरुष द्वारा-प्ररूपित तत्वों का निश्चय किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान है-साधना से तथा अनुभव से । विशिष्ट और तटस्थ अनुभव के द्वारा, जो कि साधना से ही उपलब्ध होता है, सर्वशक्ति
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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