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वैराग्य सम्बोधन यदि छोड़ दिया जाय और लोक व्यवहार पर ही सूक्ष्म रूप से विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि अकेले प्रत्यक्ष से संसार का निर्वाह नहीं हो लकता है और न हो रहा है। यहां पद-पद पर अनुमान और पागम प्रमाण का आश्रय लेना पड़ता है। माता पिता नादि गुरुजनों के वाक्यों को कौन सुपुत्र स्वीकार नहीं करता? माता-पिता श्रादि के वास्त्र लौकिक आगम प्रामण में अन्तर्गत हैं और उन्हें प्रमाण माने विना लेन-देन श्रादि का व्यवहार नहीं चलता । इसी प्रकार अनुमान प्रमाण का भी पद-पद पर प्रयोग करना पड़ता हैं । धूम्र को देख कर सभी चतुर पुरुष अग्नि का अनुमान करते हैं। व्यस्त वाणी सुन कर मनुष्य के अस्तित्व का बोध होता है। दोनों किनारों को स्पर्श करती हुई, मैले कुचले पानी वाली एवं तीव्रतर वेग वाली नदी के एक विशेष प्रकार के प्रवाह को देखते ही वर्षा का ज्ञान हुश्रा करता है । यह सब ज्ञान अनुमान रूप है । इसे अप्रमाण कहना अति साहस है, श्रात्मवंचना है और लोक के साथ छल करना है।
इस प्रकार श्रागम और अनुमान प्रमाण की आवश्यकता स्थूल लौकिक विषयों में भी प्रतीत होती है, तो अत्यन्त सूक्ष्म, वुद्धि के अगोचर, मन से अगम्य, इन्द्रियों . के सामर्थ्य से अतीत गूढ़ तत्वों को समझाने के लिए यदि आगम और अनुमान श्रादि प्रमाणों की श्रावश्यकता प्रतीत हो तो इसमें श्राश्चर्य की क्या बात ? प्रत्युत पेसे विषयों के बोध के लिए भी शागम शादि प्रमाणों को स्वीकार न करना ही श्राश्चर्य की बात हो सकती है।
मनुष्य अपने बुद्धि वैभव का कितना ही अभिमान क्यों न करे, पर वास्तव में उसकी बुद्धि की परिधि अत्यन्त संकीर्ण है। उसकी इन्द्रियां, जिन पर वह इतराता हैन मल के बगवर जान पाती है। इन्द्रियां जितना जानती है, उससे बहुत अधिक भाग ऐसा है जिसे वे नहीं जान पाती । और बेचारा मन, इन्द्रियों का अनुचर है । वह इन्द्रियों के पीछे-पीछे दी चलता है। जहां इन्द्रियों की पहुंच नहीं है वहां मन की भी गति नहीं है। ऐसी अवस्थामें मनुप्य समन वस्तु-तत्व को जानने का दम क्यों भरता है ? विशाल सागर एक जल-विन्दु जितने भाग को भी यह नहीं जान पाता। फिर भी वह मनुष्य इतना गर्वीला बन जाता है कि वह अपनी क्षमता को स्पस्वीकार करने के बदले पक जुद जल-फर को ही सागर कहने लगता है और उस फरिणका के अतिरिका नसीम जल-राशि के अस्तित्व से इन्कार कर देता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान से परे है।
जोम जाते हैं, यस बटीस छ । जिदम नहीं जान रहे. वह
भी नहीं है, यह तो जोमान की चरम सीमा पर पहुंचा हुत्रा, पर अपने श्राप को सदभुनानी मानने वाला मनुष्य उपस्थित करता है। इस श्रेणी के मनुष्यों पोप-हक याहा गया।
मनप्यायपूर्व मानव-समाजकी प्रगति का प्रवरोध करता है । नत्रता पूर्वक अपने मान की स्वीकृति से मनुष्य आगे बढ़ता है और अपने मान को