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________________ [ ५०४ ] कषाय वर्णन भाव सहित मृत्यु होना। (७) श्रासन मरण-संयम से व्युत होकर अथवा व्रत से भ्रष्ट होकर मरना । (८' वाल पण्डित मरण-सम्यक्त्व एवं. श्रावक के व्रतों से युक्त होकर किन्तु महाव्रतों से रहित होकर, समाधि के साथ मृत्यु होना। (E) सशल्य मरण-पर लोक में सुखों की प्राशा रखकर मरना, मिथ्यात्व और मायाचार सहित मरना अर्थात् तीन शल्यों में किसी शल्य के साथ मृत्यु होना । (१०) प्रसाद मरण-प्रमाद के अधीन होकर अत्यन्त संकल्प-विकल्प युक्त पाव से जविन का त्याग करना। (११) वशातमृत्यु-इन्द्रियों के वश होकर, कपाय के वश होकर अथवा वेदना के वश होकर मृत्यु होना। (१२) विप्रण मरण-संयम, शील, व्रत श्रादि का यथावत् पालन न कर सकने के कारण अपघात करना। (१३) गृद्धपृष्टमरण-युद्ध में शूरवीरता दिखा कर मरना । (१४) भक्तपान मरण प्रत्याख्यान मरण-विधि पूर्वक तीनों प्रकार के आहार का जीवनपर्यन्त परित्याग करके मृत्यु होना। (१५) इंगित मरण -समाधि मरण धारण करके-संथारा लेकर फिर किसी से सेवा-चाकरी न कराते हुए देह त्याग करना। (१६) पादोप गमन मरण-आहार का तथा शरीर का यावज्जीवन त्याग करके वृक्ष की भांति स्थिर रह कर-गमनागमन श्रादि क्रियाओं का त्याग करके-प्राण त्याग करना। (१७) केवलि मरण-केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् देहका पृथक होना। इन सत्तरह प्रकार की मृत्यु में से कोई भी मृत्यु ऐसी नहीं है, जिसमे कुटुन्यी जन भागीदार बन सकते हो। मूलः-इमं च में अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किचमियं अकिचं । तं एवमेवं लालप्यमाणं, हरा हरति त्ति कहं पमाए ॥२४॥ दाया:-दच मेऽम्ति एवम् च नासित, वंच में कृस्यमिदम हत्यम् । नमेवमेवं लालप्यमानं.हरा हरन्तीति कथं समादः ॥ २४ ॥ शब्दार्थ:-यह मेरा है, यह मेरा नहीं है, यह कार्य करने योग्य है और यह करने योग्य नहीं है, इस प्रकार बोलने वाले जीव को रात दिन रूपी चोर हरण कर लेते हैं। ऐसी अवस्था में प्रमाद से किया जा सकता है ? अर्थात प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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