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तेरहवां अध्याय
[५०३ : फिर आत्तध्यान करके दूसरा कर्म बांधते हैं।
: इस कथन के अनुसार जब चोरी आदि कर्मों का फल कोई इसी जन्म में भोगता है तब भी उसके भाई-बन्धु उसमें भाग नहीं लेते। चोरी या खून करने वाला अकेला ही घोर ताड़ना संदता है, अकेला ही कारावास के कष्ट भोगता है और अकेला ही अपमानित एवं तिरस्कृत होता है । जब इसी लोक में भाई-बन्धु साथ नहीं देते तो वे परलोक में क्या साथ देंगे ? परलोक में साथ देने की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
आयु जब पूर्ण हो जाती है तब जीव को कोई बचा नहीं सकता अगर दूसरे लोग अपनी.श्रायु का कुछ, भाग मरने वाले को प्रदान करदें तो उसे बचाया जा सकता है, पर ऐसा होना असंभव है। श्रायु में आदान-प्रदान नहीं हो सकता। वह भी कर्म का एक फल है और कर्म का फल कर्ता को ही भोगना पड़ता है। ' कत्तारमेव अणुथाइ कम्मे ।' कर्म, कर्ता का ही अंनुगमन करता है। इसी लिए शास्त्रकार कहते हैं--माता-पिता, भ्राता आदि उस समय हिस्सा बंटाने में समर्थ नहीं हो सकते । श्रतएव कुशल पुरुप को कर्म करते समय उसके फल का अवश्य विचार करलेना चाहिए।
एक अवस्था को त्याग कर दूसरी अवस्था धारण करना भरना कहलाता है। अवस्थान्तर को मृत्यु कहते हैं । एक. शरीर को छोड़ना और दूसरे शरीर को प्राप्त , करना जैसे अवस्थान्तर है, उसी प्रकार एक शरीर की विद्यमानता में भी प्रतिक्षणं नूतन अवस्था होती रहती है। इसके अतिरिक्त पूर्ववद्ध प्रायु कर्म के थोड़े-थोड़े अंश प्रति समय जीव भोगता है और भोगे हुए अंशों का क्षय प्रतिक्षण होता रहता है। आयु कर्म का क्षय होने से प्रतिक्षण जीव की मृत्यु होती रहती है। शास्त्रकारों ने मृत्यु के सत्तरहं प्रकार बताये हैं। जैसे- .
(६) श्रावीचिमरण-जन्म लेने के पश्चात् क्षण-क्षण श्रायु की कमी होना-मुक्त . आयु कर्म के दलिकों का क्षय होना । ।
(२) तद्भवमरण-वर्तमान जीवन में प्राप्त शरीर के संयोग का अभाव हो जाना तद्भव मरण है।. ..
(३) अघधिमरण-गत जीवन में जितनी श्रायु बँधी थी, उसके पूर्ण होने पर . मृत्य होना।
(४) अधिन्त मरण-सर्वदेश और एक देश से आयु का क्षीण होना तथा दोनों भवों में एक ही प्रकार की मृत्यु होना।
(५) वाल मरण-सम्यद्गर्शन, ज्ञान और चारित्र की आराधना से रहित होकर मरना, अज्ञान-पूर्वक मरना, विष-भक्षण करके, जल में डूब करके, पर्वत से कूद करके या अन्य प्रकार से आत्मघात करके मरना। .
(६) पण्डित मरण-समाधिभावं के साथ, रत्नत्रय की आराधना पूर्वक, सास्य -