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ग्यारहवां अध्याय
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श्रता है । श्रतएव उसके द्वारा काल आदि सृष्टि करना सर्वथा निराधार है । संहार कर्त्ता मानने से वह निर्दय, हिंसक भी सिद्ध होता है, अतएव स्वयंभूवाद भी मृषावाद है ।.
इसी प्रकार अंडे से जगत् की सृष्टि मानना भी मिथ्या है। जब लोक सभी पदार्थों से शून्य था, तब ब्रह्मा ने जल में अंडा उत्पन्न किया, ऐसा कहा जाता है, परन्तु सृष्टि से पहले जल कहां से आ गया ? जल- अगर सृष्टि से पहले ही विद्यमान था. उसे ब्रह्मा ने नहीं बनाया तो उसी प्रकार अन्य पदार्थों का भी अस्तित्व क्यों न माना जाय इसके अतिरिक्त जल उस समय कहां था- किस आधार पर ठहरा था ? जल का अस्तित्व मानने पर उसका आधार भी कुछ मानना ही पड़ेगा। वह आधार पृथ्वी आदि कोई पदार्थ ही हो सकता है और उसे भी सृष्टि से पहले स्वीकार करना चाहिए।
यह पहले कहा जा चुका है कि बिना उपादान कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती । इस नियम के अनुसार अंडा बनाने के लिए अपेक्षित उपादान कारण भी पहले ही विद्यमान होने चाहिए। और यह सब पदार्थ, बिना आकाश के ठहर नहीं सकते, श्रतएव इन्हें अवकाश देने वाला आकाश भी अंडे से पहले ही स्वीकार करना चाहिए ।
इसके अतिरिक्त ब्रह्मा पहले अंडा बनाता है, फिर उससे अन्य पदार्थों का निर्माण करता है, सो इस क्रम की आवश्यकता क्यों है ? जब तक वह अंडा बनाता है तब तक लोक की ही सृष्टि क्यों नहीं कर देता ?
ब्रह्मा सशरीर है या अशरीर है ? नित्य है या श्रनित्य है ? इत्यादि प्रश्नों पर जिस प्रकार पहले ईश्वर के विषय में विचार किया गया है, उसी प्रकार यहां भी विचार करना चाहिए ।
इसी प्रकार ब्रह्मा ने तत्त्वों की सृष्टि की, यह कथन भी मिथ्या है, इस पर अब विचार करना अनावश्यक है ।
उल्लिखित विवेचन से यह स्पष्ट हो गया है कि सृष्टि रचना के संबंध में अनेक वादियों ने जो कल्पनाएं की हैं, वे युक्ति से सर्वथा विपरीत है और उनमें सत्य का लेश मात्र भी नहीं है । यह सय कथन अज्ञान मूलक हैं. मृषा है । इस विषय में सत्य क्या है । लोक की रचना हुई हैं या नहीं ? अगर हुई तो किस प्रकार ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान सूत्रकार ने अगली गाथा में किया है।
मूल:-सएहिं परियायेहिं, लोयं वूया कडेत्ति य ।
तत्तं ते विजापति, ण विणासी कयाई वि ॥२१॥
छायाः स्वकैः पर्यायेर्लोकयुवत् कृषमिति ।
तर से न विजानन्ति न विनाशी कदापि ॥ २१ ॥ शब्दार्थ:--- पूर्वो वादी अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार लोक को रचा हुवा