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________________ [ ४४६ ) भाषा-स्वरूप वर्णन शक्ति रुप बीज का श्रारोपण कर दिया। ___ यह मान्यता भी सत्य से विपरीत है। सर्व प्रथम देखना चाहिए कि स्वयंभू का अभिप्राय क्या है ? स्वयंभू शब्द का अर्थ है 'स्वयं' होने वाला-स्वयंभू जब उत्पन्न होता है तब स्ययं अर्थात दूसरे कारण के बिना ही उत्पन्न होता है या अनादिकाल से उसका अस्तित्व है। स्वयंभू अगर बिना किसी कारण के अपने आप उत्पन्न हो सकता है तो लोक भी स्वयं क्यों नहीं उत्पन्न हो सकता? स्वयंभू की उत्पत्ति के लिए अगर किसी कर्ता की श्रावश्यकता नहीं है तो लोक की उत्पत्ति के लिए कर्ता की आवश्यकता क्यों समझी जाती है। इसके अतिरिक्त पृथिवी श्रादि भूतो की उत्पत्ति बाद में हुई है तो स्वयंभू का शरीर किन उपादानों से बना होगा ? बिना उपादान कारण के किसी कार्य की उत्पत्ति होना संभव नहीं है । शून्य से कोई सत् पदार्थ उत्पन्न नहीं होता । स्वयंभू का शरीर रहित मानना भी ठीक नहीं होगा, क्योंकि बिना शरीर के वह स्थूल रूप धारण नहीं कर सकता और आप स्वयं सूक्ष्म रूप त्याग कर स्थूल ( व्यक्त ) रूप धारण करना मानते हैं। ऐसी अवस्था में स्वयंभू की उत्पत्ति ही नहीं सिद्ध होती, तो उससे जगत् की उत्पत्ति किस प्रकार सिद्ध हो सकती है? स्वयंभू को अनादि कालीन मानने पर उसे नित्य स्वीकार करना होगा और एकान्त नित्य स्वयंभू अव्यक्त से व्यक्त अवस्था को कैसे प्राप्त हो सकेगा। इसक अति. रिक्त नित्य मानने से ईश्वर और देव के प्रकरण में जो बाधाएँ उपस्थित की गई है वही सब यहां भी उपस्थित होती हैं। ईश्वर प्रकरण में जिस प्रकार ईश्वर के कर्तृत्व पर विचार किया गया है, उसी प्रकार स्वयंभू के कर्तृत्व पर भी विचार करना चाहिए। स्वयंभू ने मृत्यु की उत्पत्ति की और मृत्यु प्रजा का संहार करने लगी, यह कथन भी निराधार है। किसी चीज को बना कर फिर विगाड़ना बुद्धिमान् पुरुष के योग्य नहीं है। या तो अज्ञात के कारण अन्यथा रूप वस्तु वन-जाय तो उसे चिगाड़ा जाता है या बच्चों की तरह कौतूहल से बनाने-बिगाड़ने की क्रिया होती है। स्वयंभू को न तो अज्ञात माना है और न बच्चों की तरह कौतूहल-प्रिय ही। फिर उसने सृष्टि करके उसका संहार करने के लिए काल की उत्पत्ति क्यों की ? अगर उसकी बनावट चुरी नहीं थी तो उसे बिगाड़ने की क्या आवश्यकता थी? यह कहना व्यर्थ है कि पृथ्वी का भार उतारने के लिए उसने काल का निर्माण किया है। स्वयंभू अगर समझदार है तो उसे इतने ही पदार्थों का निर्माण करना चाहिए, जितने पदार्थों का भार भूमि संभार सके । अधिक बनाने की आवश्यकता ही क्या है ? अगर किसी कारण अधिक पदार्थ बन गये तो भूमि को अधिक भार सहने में समर्थ बना सकता था। तात्पर्य यह है कि स्वयं को जगत् का सृष्टा और संहारक मानने से उसमें अज्ञानता, बालसुलभ चपलता मादि अनेक दोषों का प्रसंग
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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