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ग्यारहवां अध्याय
भाष्य-सत्य भापा का स्वरूप और उसके उल्लिखित भेदों का निरूपण, प्रकरण वश पहली गाथा में लिखा जा चुका है। जिज्ञासु वहां देखें । यहां उनकी पुनरूक्ति नहीं की जाती। मूलः-कोहे माणे माया, लोभे पेज तहेव दोसे य ।
हासे भये अक्खाइय, उवधाए निस्सिया दसमा १६१ छाया:-क्रोधं मानं मायां, लोभं राग तथैव द्वेपं च ।
हास्यं भय माझ्यातिकं उपघातं निश्रितो दशमा ॥ १६ ॥ शब्दार्थः-असत्य भापा के भी दस भेद हैं-(१) क्रोधनिश्रित (२) माननिश्रित (३) मायानिश्रित (४) लोभनिश्रित (५) प्रेमनिश्रित (६) द्वेषनिश्रित (७) हाष्यनिशित (5) भयनिश्रित (8) आख्यातनिश्रित और (१०) उपघातनिश्रित ।
भाष्यः-इन भेदों का निरूपण भी पहले हो चुका है। अतः पुनरुक्ति नहीं की जाती। मूल:- इणमन्नं तु अन्नाणं इहमेगेसिमाहियं ।
देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्ते चि आवरे ॥ १७ ॥ ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे । जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्ख समानिए ॥ १८ ॥ सयंभुणा कडे लोए, इत्ति वुत्तं महोसणा । मारेण संथुया माया, तेण लोए अप्सासए । १६ ।। माहणा समणा एगे, प्राह अंड कडे जगे। असो तत्तमकासी य, अयाणंता मुसं वदे ॥ २० ॥ छायाः-इदमन्यत्त प्रज्ञानं, इहैकेपामाण्यातम् ।
देयोप्तोऽयं लोका, ब्रह्मोप्त इत्यपरे ॥ ३७॥ .. ईवरेण कृतो लोका, प्रधानादिना तथाऽपरे । जीवाजीच समायुरः, सुख दुःख समन्वितः1 15॥ स्वयम्भुवा कृतो लोकः इत्युक्तं महर्षिणा। मारेण संस्तुता माया, तेम लोकोऽशतः ॥१६॥ माहना भ्रमणा एके, प्राहुररकृतं जगत् ।
शसी तत्वमकादि , अजानन्तः मृपां वदन्ति ॥२०॥ शब्दार्थः-तृष्टिके संबंध में अन्य लोगों का कहा हुश्रा अज्ञान इस प्रकार है।