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________________ [ ४२० ] भाषा-स्वरूप वर्णन छाया:- तथैव सावद्यानुमोदिनी गिरा, अवधारिणी या च परोपघातिनी । तां क्रोध लोभ भय हास्येभ्यो मानवः, न हसन्नपि गिरं वदेत् ॥ ६ ॥ शब्दार्थ:- इसी प्रकार सावद्य कार्य का अनुमोदन करने वाली, निश्चयकारी तथा पर का उपधान करने वाली भाषा को विवेकवान् मनुष्य क्रोध से, लोभ से अथवा भय से, या हंसी में न बोले, तथा हंसता हुआ भी भाषण न करे । भाष्यः - जिस वचन से सावद्य कार्य की अनुमोदना होती हो, ( सावद्य अर्थात् पाप और पाप सहित को सावद्य कहते हैं) ऐसी भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यथा-यह जीव दुःखी है, इसका दुःख दूर करने के लिए इसे मार डालो, अथवा आज अमुक प्रकार का भोजन बनाओ, धान्य की रक्षा के लिए हिरन आदि पशुओं को मार डालना ही उचित है, तुमने उन्हें मारा लो अच्छा किया।' इत्यादि प्रकार से हिंसा आदि पापों का समर्थन - अनुमोदन करने वाली वाणी सावद्य भाषा कहलाती है | सावद्य भाषा के प्रयोग से सावद्य कार्य को प्रोत्साहन मिलता है, विवेकी जनों के मुख से ऐसी भाषा सुनकर साधारण जन सावद्य कार्य को सावद्य न समझ कर करने में अधिकाधिक प्रवृत होते हैं और बोलने वाले को भी तदनुकूल मानसिक व्यापार होने से पाप का भागी होना पड़ता है इसलिए सावद्य कार्यों का अनुमोदन करने वाली भाषा का प्रयोग नहीं करना चाहिए । शंका- सावद्य का अनुमोदन करने वाली भाषा का प्रयोग न करना तो उचित कहा जा सकता है, पर निश्चयात्मक भाषा का प्रयोग करना क्यों वर्जित है ? पहले संशय जनक भाषा को त्याज्य बताया है और यहां निश्चय करनेवाली भाषा को हेय कहा है। न तो संशयजनक भाषा बोलना चाहिए न निश्चय जनक भाषा बोलना चाहिए, तो क्या समस्त वाणी व्यवहार को ही परित्याग करना शास्त्रकार को श्रभिष्ट है ? यदि नहीं, तो दोनों प्रकार की भाषाओं का परित्याग किस प्रकार हो सकता 1 समाधान - समस्त वाणी व्यवहार को त्याज्य नहीं बताया है । द्वितीय गाथा में सत्य और व्यवहार-भाषा के प्रयोग का कथन किया जा चुका है । इसके अतिरिक्त तीर्थकर भगवान्, गणधर तथा अन्य मुनि भाषा का व्यवहार करते ही हैं । निस्संदेह सन्देह जनक भाषा के त्याग का उपदेश 'असंदिद्धां' पद से पहले किया गया है, पर यहां निश्चयकारी भाषा का अभिप्राय भिन्न हैं, इसलिए दोष नहीं आता । 'मैं कल तुह्मारे यहां श्राऊंगा,' 'एक वर्ष के पश्चात् अमुक कार्य करूंगा,' 'आगामी चातुर्मास के समय अमुक शास्त्र का स्वाध्याय करूंगा' इत्यादि प्रकार से भविष्य काल संबंधी किसी कार्य के लिए निश्चित रूप वचनों का प्रयोग करना यहां अवधारिणी भाषा समझना चाहिए | 'अवधारिणी भाषा त्याज्य है, क्योंकि जीवन श्रनित्य है । वह किसी भी क्षण समाप्त हो सकता है। कौन जाने कल तक शरीर टिकेगा या नहीं ? एक वर्ष तक जीवन स्थिर रहेगा या बीच में ही समाप्त हो जायगा यदि बीच ही में शरीर छूट जाय तो उक्त निश्चयात्मक कथन पूर्ण न होगा और उस अवस्था में मिथ्या भाषण
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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