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ग्यारहवां अध्याच कहना चाहिए।
इस प्रकार कथन करने से श्रोता दुःख का अनुभव करता है। दूसरे को दुःख देना हिंसा है, अतएव इस प्रकार के वचन हिंसाजनक हैं। हिंसा घोर पाप है। इस पाप से बचने के लिए ऐसी भाषा का परित्याग करना चाहिए । इससे अनेक अनर्थ हो सकते हैं । संयमी जनों को ऐसे. सत्य और मधुर वचनों का प्रयोग करना चाहिए जिनसे श्रोता को कष्ट नहीं पहुंचे और जो सत्य से विपरीत भी न हो। मूलः-देवाणं मणुयाणं च, तिरियाणं च बुग्गहे।
प्रमुगाणं जत्रो होउ, मा वा होउ ति नो वए ॥५॥ छाया:-देवानां मनुजानां च, तिरश्चां च विद्महे ।
अमुकानां जयो भवतु. मा चा भवस्विति नो वदेत् ॥ ५॥ शब्दार्थः-देवों के, मनुष्यों के अथवा तिर्यञ्चों के युद्ध में अमुक की विजय हो, अथवा अमुक की विजय न हो, इस प्रकार नहीं कहना चाहिए।
भाष्यः-जब देवताओं में परस्पर युद्ध हो रहा हो, अथवा मनुष्यों में आपसी संग्राम होता हो या पशु अन्योन्य लड़-भिड़ रहे हो तो, साधु को किसी एक पक्ष के जय और दूसरे पक्ष के पराजय का कथन नहीं करना चाहिए।
जय-पराजय का निर्देश करने से राग-द्वेष की वृद्धि होती है । जिस पक्ष की विजय का कथन किया जाता है उस पर राग का भाव और जिसके पराजय का कथन किया जाता है, उस पर द्वेष भाव होना अनिवार्य है। मुनि राग-द्वेष से अतीत मध्यस्थ भावना से सस्पन्न होता है।
___राग-द्वेष के अतिरिक्त युद्ध में पराजय या जय का कथन करने से युद्ध की अनुमोदना का भी दोष लगता है और जिसके पराजय का कथन किया जाता है उसे घोर दुःख होता है । कदाचित् जिसका पराजय चाहा था उसकी विजय हो जाय.तो साधु से वह प्रतिशोध लेता है । उस अवस्था में साधु पर, तथा उसके संयम पर और धर्म पर भी संकट या जाता है । जिसकी विजय की कामना की जाती है वह यदि पराजित हो जाय तो मुनि को खद और संताप होता है।
इत्यादि कारणों से मुनि को युद्ध के विषय में उदासीन रहना चाहिए। मध्यस्थ भाव धारण करके अपने संयम की साधना में ही दत्तचित्त होना चाहिए । वह जिन प्रपंचों से मुक्त हो चुका है, उनके विषय में पुनः रस लेना उचित नहीं है।
'मनुज' शब्द से राष्ट्र या राष्ट्र समूह का भी ग्रहण करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि साधु किसी भी प्रकार के युद्ध में किसी के जय-पराजय का कथन न करे। मूल:-तहेव सावजणुमोयणी गिरा,अोहारिणी जा य परोवघडणी
से कोहलोह भयसा व माणवो,न हासमाणो वि गिरं वएना