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________________ - [ ४१४ ] भाषा-स्वरूप वर्णन . समझना चाहिए । उस काल के द्वारा मिश्रित भाषा श्रद्दामिश्रिता कहलाती है। जैसे कोई पुरुष जल्दी करने के लिए दिन शेष होने पर भी यह कहे-'जल्दी करो, रात्रि हो गई।' अथवा रात्रि शेष होने पर भी कहना-'उठो, दिन हो गया है। इत्यादि प्रकार से अन्य उदाहरण समझ लेने चाहिए । । [१०] अहाद्दामिश्रिता-रात्रि या दिवस का अंश अदाधा कहलाता है। उसके संबंध में मिश्र भाषा का प्रयोग करना श्रदादा कहलाता है। जैले दिन का प्रथम ग्रहर व्यतीत न हुआ हो तथापि कहना कि-'चलो, मध्याह्न हो गया है।' इत्यादि। . स्थूल अपेक्षा से मिश्र भाषा के उक्त भेद बताये गये हैं। वक्ता और उनके द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले वाक्य अपरिमित हैं और सत्य एवं असत्य का सस्मिश्रण अनेक प्रकार से किया जा सकता है-किया जाता है। अतएव परिपूर्ण स्वरूप का उल्लेख नहीं हो सकता। विवेकीजनों को विचार क के यथायोग्य समन्वय और निर्धारण कर लेना चाहिए। चौथी व्यवहार भाषा है । जिसमें सत्य, असत्य अथवा मिथ भाषा का लक्षा घटित नहीं होता और जो श्राराधना अथवा विराधना के उपयोग से रहित है वह अलत्यामृषा या व्यवहार भाषा कहलाती है । असत्यांमृषा भाषा के बारह प्रकार हैं-[१] श्रामन्त्रणी [२] श्राज्ञापनी [३] याचनी [४] पृच्छनी [५] प्रज्ञापिनी [६] प्रत्याख्यानी [७] इच्छानुलोमा [ अनभिगृहिता [६] अभिगृहिता १० संशय करणी [२१] व्याकृता और [१२] अन्याकृता। [१] आमन्त्रणी-जो भाषा सम्बोधन-पदों से युक्त होती है, और जिसे सुनकर श्रोता श्रवण करने के अभिमुख होता है वह आमन्त्रणी भाषा कहलाती है। यह सत्य श्रादि भाषाओं से भिन्न प्रकार की है और पाराधक-विराधक भाव से रहितत है, इसलिए यह असत्यामृषा है। [२] श्राज्ञापनी-आज्ञावचन से युक्त भाषा आज्ञापनी कहलाती है। ३] याचनी-जिल भाषा द्वारा अभिष्ट पदार्थ की याचना की जाय यह याचनी भाषा है । जैसे-'मुझे भिक्षा दो' ऐसा कहना। यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि वीतराग होने के कारण किसी को कुछ भी न देने वाले तीर्थकर भगवान से 'भारुगोहिलामं समाहिवरमुतम दित अर्थात मझे आरोग्य एवं बोधिलाभ तथा श्रेष्ठ समाधि अरिहन्त भगवान प्रदान करें, इस प्रकार की याचना करना याचनी भाषा कैसी हो सकती है, जवकि याचना के विषय का अभाव है? इसका समाधान यह है कि वास्तव में यह भक्ति प्रयुक्त याचनी भापा है। यहां याचना का विषय न होने पर भी असत्यामृपा होने के कारण और निश्चय से सत्य की कोटि में प्रवेश करने रूप गुण से युक्त होने के कारण वह निर्दोष है। [४] पृच्छनी-जिस विषय में जिशाला का प्रादुर्भाव हुआ हो उस विषय में
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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