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साधु-धर्म निरूपण आशा लेकर ही ग्रहण करना चाहिए । इन पांच भावनाओं का सेवन करने से अदत्तादान विरमणवत का रक्षण और सम्यक् प्रकार से पालन होता है ।
अदत्त के चार भेद इस प्रकार किये जाते हैं.: (१) खामी-अदत्त-किसी भी वस्तु को उसके स्वामी की आज्ञा बिना ग्रहण करना।
(२) जीव-अदत्त-कोई भी जीव अपने प्राण हरण की श्राज्ञा नहीं देता। अतः एव किसी के प्राण हरण करना जीव-श्रदत्त है।
(३) सर्वज्ञोपदिष्ट शास्त्रों में विधान किये हुए साधु के चिह्न (वेष) से विपरीत वेष धारण करना या विपरीत प्ररूपणा करना तीर्थकर-अदत्त है । - (४) गुरु-श्रदत्त-गुरु श्रादि ज्येष्ठों की आज्ञा भंग करना गुरु-अदत्त है। इन चारों प्रकार के अदत्तादानों का साधु तीन करण और तीन योग से सर्वथा त्याग . . करते हैं। मूलः-मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं ।
तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वजयंति णं ॥ ४ ॥ छायाः-मूलभेतदधर्मस्य, महोदोपसमुच्छ्रयम् । ।
तस्मान्मैथुनसंसर्ग, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थ:-मैथुन-सेवन अधर्म का मूल है और महान् दोषों को बढ़ाने वाला है, इसलिए निम्रन्थ मुनि उसको त्याग करते हैं।
भाष्यः-तृतीय महाव्रत के विवेचन के अनन्तर क्रम प्राप्त चतुर्थ ब्रह्मचर्य महाव्रत का यहां विधान किया गया है।
वेद के राग रूप योग से स्त्री-पुरुष का सहवास होना अब्रह्म कहलाता है। . अब्रह्म के यहां दो विशेषण हैं-महादोषों को बढ़ाने वाला और अधर्म का मूल। अर्थात् अब्रह्म बड़े-बड़े दोषों की वृद्धि करने वाला एवं पाप का मूल है।
जहां अब्रह्म का सेवन है वहां हिंसा अवश्यमेव होती है। विना हिंसा के प्रब्रह्म का सेवन नहीं हो सकता। अब्रह्म सेवन से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा-दोनों, प्रकार की हिंसा होती है । स्त्री योनि में रहने वाले सम्मूर्छम जीवों की हिंसा होने से तथा शारीरिक बल की क्षीणता के निमित्त से द्रव्य हिंसा होती है । कहा भी है
हिंस्यन्ते तिलनाल्यां, तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वत् ।
वहवो जीवा योनौ, हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ॥ .. अर्थात् तिलों से भरी हुई नली में तपी हुई. लोहे की सलाई डालने से तिल नष्ट . हो जाते हैं, उसी प्रकार योनि में बहुत से जीव नष्ट हो जाते हैं। . . उक्त कथन से स्व-द्रव्य हिंसा और पर-द्रव्य हिंसा का होना स्पष्ट है । इसके