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________________ नववां अध्याय [ ३२६ ] भाष्यः-द्वितीय महाव्रत का स्वरूप बताने के अनन्तर तृतीय महाव्रत का स्वरूप यहां बताया गया है। मुनिजन संसार की कोई भी वस्तु, बिना उसके स्वामी की श्राज्ञा प्राप्त किये, ग्रहण नहीं करते । चाहे वह सजीव शिष्य आदि हो, चाहे निर्जीव घास आदि हो । यहां तक कि दांत साफ करने का तिनका भी विना शाला के वे ग्रहण नहीं करते हैं। अदत्तादान इसलोक से और परलोक में एकान्त दुःख का कारण है। वह संताप, मरण, भय और लोभ का लबल हेतु है । उससे अपयश फैलता है । अदत्तादानी सदा दूसरे के घर में घुसने का मौका देखता रहता है और कभी उचित समय देखकर सेंध लगा कर, द्वार तोड़ कर या दीवाल फांद कर घुस जाता है, और पकड़ा जाता है तो उसे भयंकर दंड मिलता है । वह अपने इष्टजनों को मुख दिखलाने योग्य नहीं रहता। उनके सामने जाने में लज्जाता है । इस प्रकार अदचादानी को उसके श्रात्मीयजन भी त्याग देते हैं, मित्रगण उसका तिरस्कार करते हैं। सर्व साधारण के अपमानजनक धिक्कार आदि शब्दों से उसे जीवित रहते हुए भी मृत्यु सरीखा कष्ट भोगना पड़ता है। मृत्यु के पश्चात् अदत्तादानी घोर नरक में उत्पन्न होता है। नरक में जलते हुए अंगारों से सैंकड़ों गुनी उष्णवेदना और हिमपटल से भी अत्यधिक शीतवेदना श्रादि अनेक प्रकार के कष्ट प्रतिक्षण भोगते हैं। नरक की यह वेदनाएँ सहन करने के पश्चात् अगर उन्हें तिर्यच भव की प्राप्ति होती है तो वहां भी अनेक वेदनाएँ सहनी पड़ती हैं, जिन्हें हम प्रत्यक्ष देखते है । कभी पुराययोग ले मानवभव की प्राप्ति हुई तो वहां भी अनेक कष्टो का सामना करना पड़ता है । इस प्रकार अदत्तादानी उभयलोक में दुःख उठाता है। अदचादान के इस भीषण परिणाम का विचार कर उससे निवृत होना श्रेयस्कर है। अदत्तादान विरमण द्रत का सम्यक् प्रकार से पालन के लिए पांच भावनाएँ बताई गई हैं। वे इस प्रकार हैं (१) स्वामी या उसके नौकर की आहा लेकर ही निर्दोष स्थानक में निवास करना चाहिए। (२) शुरु या अन्य ज्येष्ठ मुनि की आज्ञा लिए विना आहार आदि का उपभोग न करे। (३) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा पूर्वक सदा गृहस्थ की श्राक्षा ग्रहण करना चाहिए। (४) सचित्त शिष्य श्रादि, अचित्त तृण आदि और मिथ- उपकरण सहित शिष्य आदि के लिए पुनः पुनः आज्ञा लेना चाहिए. मर्यादा के अनुसार ही ग्रहण करना चाहिए। . (५) एक साथ रहने वाले सहधर्मियों ( साधुनों) के वस्त्र-पात्र श्रादि, उनकी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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