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ब्रह्मचर्य-निरूपण. - इस अर्थ का तात्पर्य यह है कि काम-भोग संसार में भी हानिजनक हैं और मोक्ष के भी.बाधक हैं। कामी और भोगीजन न तो संसार में ही शान्ति और साता का अनुभव कर पाते हैं, न मोक्ष ही प्राप्त करते हैं। ____ इस प्रकार काम-भोग विविध प्रकार के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक अनों की खानि हैं । काम-भोगों से क्या-क्या अनर्थ होते हैं, यह बात प्राचीन कथानकों से स्पष्ट है । रावण आदि के दृष्टान्तो को कौन नहीं जानता ? मूलः-जहा किंपागफलाणं परिणामो न सुन्दरो। एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ॥१२॥
छायाः-यथा किस्पाकफलानां, परिणामो न सुन्दरः ।
__ एवं भुक्तानां भोगानां, परिणामों न सुन्दरः ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:--जैसे किंपाक फल के भक्षण का परिणाम अच्छा नहीं होता, उसी प्रकार भोगे हुए भोगों का परिणाम अच्छा नहीं होता।
भाष्यः-किंपाक नामक फल खाने में स्वादिष्ट होता है, सूझने में सुगंध युक्त होता है, और देखने में अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है, किन्तु उसका भक्षण करना हलाहल विष का काम करता है । बाह्य-सौन्दर्य से मुग्ध होकर जो उलका भोग करता है वह प्राणों से हाथ धो बैठता है। इस प्रकार उसके भक्षण का जीवन-विनाश रूप अत्यन्त अनिष्ट परिणाम होता है। इसी प्रकार भोगे हुए मोगों का परिणाम भी अतीव अनिष्टजनक है । भोग भी ऊपर से बड़े लुभावने, आनन्ददायी, तृप्ति कारक और मधुर से प्रतीत होते हैं, पर उनका नतीजा बड़ा बुरा होता है । कहा भी है
रम्यमापातमात्रे यत्, परिणामेऽति दारुणम् । . किंपाकफल संकाशं, तत्कः सेवेत मैथुनम् ? ॥ अर्थात् जो मैथुन पहले-पहल रमणीय मालूम होता है परन्तुं परिणाम में अत्यन्त भयंकर होता है, अतएव जो किंपाक वृक्ष के समान है, उसे कौन विवेकशील पुरुष सेवन करेगा?
काम और भोग शब्द के अर्थ में सूक्ष्म रूप से भेद है, फिर भी दोनों शन्द पर्याय रूप में भी प्रयुक्त होते है अतएव यहाँ सिर्फ भोग शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रथवा भोग शब्द 'काम' का भी उपलक्षण है। मूलः-दुपरिच्चमा इमे काया, नो सुजहा अधीरपुरिसेहि। ..
अह संति सुव्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया व ॥१३॥ छायाः-दुःपरित्याज्या इमे कामाः, न सुत्यजा अधीर पुरुषैः ।।
अथ सन्ति सुव्रता: साधवः, ये तरन्त्यतरं वणि केनैव ॥ १३ ॥ शब्दार्थ:-यह काम-भोग जीवों द्वारा अत्यन्त कठिनता से छोड़े जा सकते हैं, कायर