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________________ [ २४० ] सम्यक्त्व-निरूपण और उत्कृष्ट छह प्रावलिका और सात समय तक रहता है। . क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव जव सम्यक्त्व मोहनीय के पुदलों के अंतिम रस का आस्वादन करता है. अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व के प्रगट होने से एक समय पहले जीव के जो परिणाम होते हैं, वह वेदक सम्यक्त्वं कहलाता है। वेदक सम्यक्त्व के पश्चात् दूसरे ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है । क्षायिक .. सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर फिर नष्ट नहीं होता। ... . इन्हीं पांच भेदों के निसर्गज और अधिगमज के भेद से दो-दो भेद करदेने से भी सम्यक्त्व दस प्रकार का हो जाता है। जैसा कि पहले कहा गया है और आगे भी कहा जायगा, सम्यक्त्व प्रात्मा के विकास का प्रथम सोपान है । जब तक जीव की दृष्टि निर्मल नहीं होती. तब तक वह वस्तु का सच्चा स्वरूप नहीं समझ पाता । वह दृष्टि दोष के कारण हित. को अहित और अहित को हित मान लेता है । अतः सर्वप्रथम दृष्टि को निदोष बनाना ही भव्य जीव का कर्तव्य है। दृष्टि निर्मल हो जाने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो चुकने पर भी जिन-जिन कारणों से उसमें दोष आते हों. उन कारणों का परित्याग करना चाहिए। ऐसे कारण मुख्य रूप से पांच हैं। कहा भी है शङ्काकालाविचिकित्सा-मिथ्यादृष्टिप्रशंसनम् । . . . . . " . . . . तत्संस्तवश्च पञ्चापि, सम्यक्त्वं दूषयन्त्यलम् ॥ - अर्थात् (१) शंका (२) कांक्षा (३) विचिकित्सा (४). मिथ्यादृष्टि प्रशंसा और (५) मिथ्यादृष्टिसंस्तव, यह पांच कारण सम्यग्दर्शन को अत्यन्त दोषयुक्त बना देते है । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) शंका-सर्वज्ञ वीतराग भगवान द्वारा उपदिष्ट तत्वों में संदेह करना शंका दूपण है । जैसे-जीव है या नहीं ? यदि है तो वह शरीर-परिमाण है या सर्वव्यापक है ? इस प्रकार सर्वोश में या देशांश में संदेह करना । : :(२) कांक्षा-एकान्तवादी, सर्वज्ञ, राग-द्वेषयुक्त पुरुषों द्वारा प्रवर्तित मतों की आकांक्षा करना कांक्षा दोप है । जैसे-दुसरे साधु-संन्यासी मज़ामौज लूटते हुए भी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, तो हम भी उसी सातकारी मार्ग का अवलम्बन लें, ऐसा सोचना। ..... ......... ........ .. . ....... (३) विचिकित्सा-क्रिया के संबंध में अविश्वास करना, ग्लनि करना, अथवा निन्दा करना विचिकित्सा दोष हैं । जैसे-यह साधु कभी स्नान नहीं करते, कैसे मलिताचारी हैं ! अचित्त जल से स्नान कर लेने में क्या हानि हैं ? इत्यादि। () मिथ्यादृष्टि प्रशंसा-जिनकी दृष्टिं दूपित है, जो मिथ्यात्व मार्ग के अनुगामी हैं उनकी प्रशंसा करना, मिथ्यादृष्टि प्रशंसा दोष है। मिथ्या दृष्टि की प्रशंसा करने से मिथ्यात्व की भी प्रशंसा हो जाती है, अतः सम्यग्दृष्टि को इस दोप से भी वचना चाहिए।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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