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पांचवां अध्याय
{ २१५ । को पार करना चाहता है, वह एक भुजा वाले पुरुष की भाँति अथाह सागर में डूब जाता है। श्रथवा जैसे एक पक्ष (पंख ) वाला पक्षी ऊपर की ओर उड़ नहीं सकता उसी प्रकार चारित्र रहित अकेले ज्ञान वाला पुरुषः ऊर्ध्वगमन-मोक्ष-गति-के योग्यः नहीं हो सकता। एक पंख वाला पक्षी जैले नीचे गिर पड़ता है उसी प्रकार कोरा ज्ञानी अधोगति को प्राप्त होता है। - जैसे रसायन को जानने वाला पुरुप, रसायन के ज्ञान मात्र से सुखी नहीं होता अथवा भोजन का ज्ञान ही क्षुधा की शांति नहीं कर देता, उसी प्रकार मोक्ष का ज्ञान मात्र मोक्ष नहीं प्राप्त करालकता । अतएव जो वास्तविक कल्याण के अभिलाषी हैं उन्हें कल्याणं के मार्ग का लम्यग्ज्ञान, सम्यक श्रद्धान और सम्यक अनुष्ठान करना चाहिए । इसी त्रिपुटी का अवलंबन करके अतीतकाल में अनन्त महापुरुष कृतार्थ हुए हैं, वर्तमान में हो रहे हैं और भविष्य में भी होंगे।
जानकान्त में जो वाधाएँ उपस्थित की गई हैं वही सब बाधाएँ समान रूप से क्रियकान्त में भी आती हैं । अतएव उन्हें स्वयं समझलेना चाहिए। पुनरावृत्ति करके ग्रंथ-विस्तार नहीं किया गया है। - मूलः-जे के सरीरे सत्ता, वरणे रूवे य सव्वसो।। - मणसा काय वक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा ॥ ११ ॥
. छाया:-ये केचित् शरीरे सक्ताः ; वर्णे रूपे च सर्वशः। . . . . . . . . . मनसा काय वाक्याभ्याम् , सर्वे ते दुःखसम्भवाः ॥ १॥
शब्दार्थ:-जो कोई प्राणी मन, वचन और काय से, शरीर में आसक्त हैं तथा वर्ण, और रूप में पूर्ण रूपेण आसक्त हैं, वे दुःख के भाजन होते हैं।
भाष्यः -- ज्ञानेकान्तबादी, चारित्र से विमुख होकर क्या फल पाते हैं, यह इस गाथा में प्ररूपण गया किया है।
. जो शरीर में तथा रूप आदि में आसक्त होते हैं, जिन्हें विषयभोगों में अत्यन्त समता है, वे बहिरात्मा जीव हैं। उन्हें प्रात्मा का अनुभव नहीं है अतएव आत्मिक सुख के अपूर्व स्वाद से अनभिज्ञ हैं। वे इन्द्रिय सुत्रों के कामी बन कर इन्द्रियों से प्रेरित होते हैं-इन्द्रियों के क्रीत दास बन जाते हैं । इन्द्रियाँ उसके अन्तःकरण में नाना प्रकार की कामनाएँ जागृत कर देती हैं और वह कामनाओं की पूर्ति करने में ही अहर्निश उद्यत रहता है। कामनाओं की पूर्ति करने के साधन रूप धन कमाने की प्रवल लोलुपता से प्रेरित होकर वह पुरुप घृणित और निन्दनीय कार्य करने से भी नहीं डरता है। वह धनोपार्जन के लिए भोले और गरीयों को चूसता है, नीति अनीति के विचार को ताक पर रख देता है। यर्थ के अतिरिक्त और सय उसके लिए मनर्थ बन जाता है। . . इन्द्रियलोलुप पुरुप विवेकशून्य होकर भक्ष्य-अभक्ष्य का भान भूल जाता है,