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.: शान-प्रकरण हैं। ऐसे विवेकहीनजन वास्तव में बाल-अनानी है । साधारण अज्ञानी की अपेक्षा. अपने को पंडित मानने वाले अज्ञानी अधिक दुर्गति के पात्र होते है। जो अज्ञानी, अपने अज्ञान. को जानता है वह अपने अज्ञान को भी न जान सकने वाले पंडित-मानी अन्नानी की अपेक्षा कम अज्ञानी है । पंडितमन्य अज्ञानी पुरुष उस से भी अधिक
जानी होता है। जो मनुष्य अपने अजान को जानता और स्वीकार करता है, वह अपने अज्ञान को दूर करने का प्रयत्न करता है और ज्ञान के मद में मत्त होकर ज्ञानीजनों की अवहेलना नहीं करता। किन्तु पण्डितंमन्य अजानी, जानीजनो से स्पर्धा करता है, भ्रान्तिवश अपने को ज्ञानी समझकर वास्तविक नानियों की अवहेलना करता है । उनके द्वारा प्रदर्शित हित-मार्ग को धृष्टता पूर्वक ठुकरा देता है और स्वयं उपदेशक बनने का दावा करता है । ऐसे ज्ञानी की अंन्त में वही दशा होती है. जो अपने रोग को न जानने वाले और न स्वीकार करने वाले, अतएव असाध्य रोगी की दशा होती है। स्वयं अज्ञान और चिकित्सकों की सम्मति को ठुकरा देने वाले तथा रोगी होते हुए भी अपने को नीरोग समझने वाले रोगी को अन्त में घोर विषाद का अनुभव करना पड़ता है। इसी प्रकार पण्डितंमन्य अजानी को भी अन्त में घोरतर विषाद का अनुभव करना पड़ता है । रोग की व्यथा बढ़ जाने पर पश्चात्ताप पूर्वक रोगी को द्रव्य प्राणों का त्याग करना पड़ता है और ऐसे अनानी को ज्ञान प्रादिभाव प्राणों से हाथ धोना पड़ता है और अपरिमित कालतक जन्म-मरण के कष्ट सहन करने पड़ते हैं। .
. उन्मार्गगामी पुरुष, किसी कारुणिक द्वारा उन्मार्ग गमन का ज्ञान करा देने पर अद्रता के कारण अपना भ्रम स्वीकार करके सन्मार्ग ग्रहण करता है और अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है, उसी प्रकार भद्र अजानी-अपना भ्रम जानकर उसे त्याग देता है और सन्मार्ग पर आरूढ़ हो कर गन्तव्य स्थान-मुक्ति-को प्राप्त करलेता है। जैसे कोई वक्र उन्मार्गगामी अपने उन्मार्गगमन को न जानता हुश्रा, सन्मार्गगामी समझता है और दूसरे जाता की बात सुनता तो वह चिरकाल पर्यन्त भी अपने लक्ष्य पर नहीं पहुंच सकता, इसी प्रकार पंडितंमन्य अजानी दीर्घकाल के पश्चात् भी मुक्ति में नहीं पहुंच सकता । इस प्रकार पंडितअन पुरुप अधिक दुःख का पात्र होता है। इसीलिए सूत्रकार ने केवल अज्ञानी न कहकर पंडितमानी जानी कहा है।
ऐसा पंडितमानी अजानी, अपने असाध्य अजान के कारण पाप कर्मों का उपार्जन करता है। वह पाप को पाप नहीं समभाता और निःसंकोच होकर पाप-कर्मों में प्रवत्ति करता है । 'जन पाप कर्मों का उदय होता है तो उसे अत्यन्त विपाद का । अनुभव होता है। पाप द्वारा उपार्जित दुःखों को भोगते समय पंडितमानी अज्ञानी द्वारा सीखी हुई संस्कृत श्रादि भाषाएँ तथा व्याकरण आदि विभिन्न शास्त्र एवं नाना प्रकार की चमत्कार दिखाने वाली विद्याएँ उसे शरण नहीं दे सकती । अर्थात् इन सब के कारण. वह दुःख भोग से नहीं बच सकता। . .... . . तात्पर्य यह है कि जो सम्यक्चारित्र का अनुष्ठान नहीं करता, ज्ञान के फलस्वरूप विरति को अंगीकार नहीं करता और सिर्फ ज्ञान के बल पर ही संसार-सागर: