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है, अनाथों का नाथ है, दीनों का बन्धु है और नारकियों को भी देव बनाने वाला है । वह स्पष्ट कहता है
अपवित्रः पवित्रो वा, दुस्थितो सुस्थितोऽपि वा । यः स्मरेत्परमात्मानम्, स वाह्याभ्यन्तरे शुचिः ॥
जिन मुमुक्षु महर्षियों ने श्रात्म हित के पथ का अन्वेषण किया है उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन की प्रशांत छाया का ही अन्त में आश्रय लेना पड़ा है । ऐसे ही महर्षियों ने निर्ग्रन्थ-प्रवचन की यथार्थता, हितकरता और शान्ति-संतोषप्रदायकता का गहरा अनुभव करने के बाद जो उद्गार निकाले हैं वे वास्तव में उचित ही हैं और यदि हम चाहे तो उनके अनुभवों का लाभ उठाकर अपना पथ प्रशस्त बना सकते हैं । क्या ही ठीक कहा है
" इणमेव निग्गंथे पावय सञ्च, अत्तरे, केवलए, संसुद्धे, पडिपुराणे, रोश्राउए, सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, निव्वाणमग्गे, खिजाणमग्गे, श्रवितहमसंदिद्धं सव्वदुक्ख पहीणमग्गे, इहट्टियाजीचा सिज्यंति, बुज्भंति, मुखंति परिणिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंत करेंति । "
यह उद्गार उन महर्षियों ने प्रकट किये हैं जिन्होंने कल्याणमार्ग की खोज करने में अपना सारा जीवन अर्पण करदिया था और निर्ग्रन्थ-प्रवचन के श्राश्रय में आकर जिनकी खोज समाप्त हुई थी । यह उद्गार निर्ग्रन्थ-प्रवचन-विषयक यह स्वरूपोलेख, हमें दीपक का काम देता है ।
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तो अनादिकाल से ही समय-समय पर पथप्रदर्शक निर्ग्रथ तीर्थकर होते. आप हैं परन्तु आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले चरम निग्रंथ भ० महावीर हुए थे। उन्होंने जो प्रवचन- पीयूष की वर्षा की थी, उसी में का कुछ अंश यहां संग्रहीत किया गया है । यह निर्यथ- प्रवचन परम मांगलिक है, आधि-व्याधि-उपाधियों को शमन करनेवाला, वाह्याभ्यान्तर रिपुत्रों को दमन करने वाला और समस्त इह-परलोक संबंधी भयों को निवारण करने वाला है । यह एक प्रकार का महान् कवच है। जहां इसका प्रचार है वहां भूत पिशाच, डाकिनी शाकिनी आदि का भय फटक भी नहीं सकता । जो इस प्रवचन- पोत पर श्रारूढ़ होता है वह भीषण विपत्तियों के सागर को सहज ही पार कर लेता है । यह मुमुक्षु जनों के लिए परम सखा, परम पिता परम सहायक और परम मार्गनिर्देशक है ।