________________
धर्म स्वरूप वर्णन त्याग की प्रतिज्ञा. नहीं की है, उसे अविरति रूप हिंसा का दोष लगता है, क्योंकि उसके परिणाम में हिंसा का अस्तित्व रूप में सद्भाव है। मन, बचन अथवा काय के द्वारा किसी भी प्राणी को कष्ट पहुँचाना. किसी का दिल दुखाना, किसी के प्राणों का घात करना परिणति रूप हिंसा है। दोनों प्रकार की हिंसा में प्रमाद का सदभाक पाया जाता है और जब तक प्रमाद का सद्भाव है तब तक हिंसा का भी सद्भाव रहता है।
हिंसा का संबंध मुख्य रूप से अन्तःकरण में उत्पन्न होने वाले परिणामों से हैं। कोई पुरुप हिंसामयं परिणामों के कारण, हिंसा न करने पर भी हिंसा का पाफ उपार्जन करता है और कोई पुरुष, हिंसा हो जाने पर भी-हिंसा के पाप का पात्र नहीं होता। . अर्थात् गौतम स्वामी पूछते हैं--भगवन् ! बस जीवों की हिंसा का.त्यागी
और पृथ्वीकाय की हिंसा का त्याग न करने वाला श्रावक यदि पृथ्वी खोदते समय । किसी त्रस जीव की हिंसा करे तो क्या उसके व्रत में दोष लगता हैं ? .
भगवान महावीर स्वामी उत्तर देते हैं-नहीं, यह नहीं हो सकता। क्योंकि श्रावक त्रस जीव की हिंसा के लिए प्रवृत्ति नहीं करता।।
.. --भगवती श० ७, उ०१ तीव कषाय से आविष्ट परिणाम के कारण, अल्प द्रव्य हिंसा होने पर भी तीव्र फल भोगना पड़ता है और मन्द कषाय के कारण हिंसा के तीव्र परिणाम न होने पर भी अधिक हिंसा हो जाती है तो भी हिंसा का फल तीव्र नहीं होता। . . .
कुछ लोग यह सोचते हैं कि सिंह, व्याघ्र, सर्प. विच्छू आदि आदि हिंसक प्राणी, . अन्य अनेक प्राणियों की हिंसा करते हैं। उन्हें यदि मार डाला जाय तो अनेक जीवों की रक्षा हो जायगी और मारने वाले को पाप की अपेक्षा पुण्य का बंध अधिक होगा। यह विचार अज्ञान-मूलक है। हम पहले यह बता चुके हैं कि कर्म का फल उसीको . भोगना पड़ता है जो करता है। ऐसी अवस्था में पाप कर्म करके अशुभ फल को
आमंत्रित क्यों करना चाहिए ? इसके अतिरिक्त प्रायः कहावत प्रसिद्ध है कि-'जीवो जीवस्य जीवतम्' अर्थात् जगत में एक जीव दूसरे जीव की हिंसा करके अपना जीवन-यापन करते हैं । सो अव एक जीव दूसरे जीव के घातक हैं तो.मारने वाला किन-किन जीवों को, कहाँ तक मारेगा? और यदि मारने पर उतारू हो जायगा तो उसकी हिंसा का पार नहीं रहेगा। उस हिंसा का फल उसे ही भुगतना पड़ेगा. अतएक जीव रक्षा के उद्देश्य से जीव-हिंसा करना योग्य है।
इससे यह भी सिद्ध है कि करुणा के वश होकर हिंसक जीवों की हिंसा करना : .. उचित नहीं है कोई-कोई अझ जीव रोगी अथवा अन्य प्रकार से दुःखी प्राणी की हिंसा करके समझते हैं कि हम उस प्राणी का उपकार कर रहे हैं ! उसे दुःख से. बचाकर शान्ति प्रदान करते हैं। यह समझ भी मिथ्या है। क्योंकि दुःख पाप. कर