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________________ तृतीय अध्याय [ ६४५ ] नहीं बनाया। इसके विरुद्ध अहिंसा का अनुसरण न करने वाले मुगल सम्राटों के हाथ से भारत का साम्राज्य चला गया । इस से यह साबित होता है कि साम्राज्य का उदय या स्त हिंसा और अहिंसा पर अवलम्बित नहीं है । तात्पर्य यह है कि हिंसा शक्तिशाली का धर्म है, उसमें कायरता के तत्व की कल्पना करना मिध्या और ज्ञानपूर्ण है । प्रश्नध्याकरण मैं कहा 'है - 'अहिंसा, देव मनुष्य और असुरों साहेत समस्त जगत के लिए पथप्रदर्शक दीपक है और संसार - सागर में डूबते हुए प्राणीको सहारा देने के लिए द्वीप है, त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है । यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरण है, पक्षियों को श्राकाशगमन के समान हितकारिणी है । व्यासों को पानी के समान है । भूखे को भोजन समान है। समुद्र में जहाज समान है । चौपायों के लिए श्राश्रम के समान है, रोगियों के लिए औषधि के समान है । ... यही नहीं, भगवती अहिंसा इनसे भी अधिक कल्याणकारिणी है । यह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, वीजं, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, त्रस, स्थावर, समस्त प्राणियों के लिए मंगलमय है । अहिंसा का निरूपण जिनागम में बहुत सूक्ष्म रूप से किया गया है । यहां संक्षेप में ही उसका स्वरूप लिखा जाता है, परन्तु अहिंसा के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझने के लिए पहले हिंसा का स्वरूप समझ लेना उचित हैं । कषाय के वश होकर द्रव्य-भाव प्राणों का व्ययरोपण ( घात ) करना हिंसा है । वात्पर्य यह है . कि जब किसी मनुष्य के अन्तःकरण में क्रोध आदि कषाय की उत्पत्ति होती है तब सर्व प्रथम उसके शुद्ध-उपयोग रूप भाव प्राणों का घात होता है, यह हिंसा है । तत्पश्चात क्रोध के प्रावेश में वह मनुष्य यदि अपनी छाती पीटता है, सिर फोड़ लेता है या आत्मघात करता है तो उसके द्रव्य प्राणों का घात होता है, यह द्रव्यं हिंसा है । यदि वह मनुष्य क्रोध आदि के वश होकर दूसरों को मर्मभेदी वचन बोलता है और दूसरे के चित्त की शान्ति को घात करता है तो उसके भाव प्राणों का व्ययरोपण करने के कारण भाव-हिंसा करता है । अन्त में यदि दूसरे पुरुष का अंग-छेदन करता है या उसे मार डालता है तो वह द्रव्य हिंसा करता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि राग-द्वेष रूप भावों की उत्पत्ति होना हिंसा है और इन विकृत भावों का उदय न होना श्रहिंसा है । जो व्यक्ति कषाय के वश ढोकर, अतना से प्रवृत्ति करता है वह हिंसा का भागी हो जाता है, चाहे उसकी प्रवृत्ति से जीवों की द्रव्य हिंसा हो या न हो, क्योंकि काय का सद्भाव होने से भावहिंसा अनिवार्य है | इसके विपरीत जो यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है - अर्थात् जो भाव हिंसा से रहित है उसकी प्रवृत्ति से द्रव्य हिंसा कदाचित् होजाय तो भी यह हिंसा का भागी नहीं होता ! हिंसा दो प्रकार की होती है - ( १ ) अविरति रूप हिंसा और ( २ ) परिणति रूप हिंसा । जो प्राणी, जीव-हिंसा करने में प्रवृत्त नहीं है, फिर भी जिसने हिंसा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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