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• समूल उन्मूलन करने वाले अर्थात वीतराग, की पदवी जिन महानुभावों ने तीव्र तपश्चरण और विशिष्ट अनुष्ठानों द्वारा प्राप्त करली है, जिन्होंने कल्याणपथ-भोक्षमार्ग को स्पष्ट रूप से देख लिया है, जिनकी अपार करुणा के कारण किसी भी प्राणी का अनिष्ट होना संभव नहीं और जो जगत को पथ-प्रदर्शन करने के लिए अपने इन्द्रवत स्वर्गीय वैभव को तिनके की तरह त्याग कर अकिञ्चन बने हैं, उनका बताया हुआअनुभूत-मोक्षमार्ग कदापि अन्यथा नहीं हो सकता, वह मुक्ति के मंगलमय मार्ग में अवश्य प्रवेश करता है और अन्त में चरम पुरुषार्थ का साधन करके सिद्ध-पदवी का अधिकारी बनता है। इन्हीं पूर्वोक्त सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, वीतराग और हितोपदेशक महानुभावों को 'निगंठ' निग्गंथ, या निग्रन्थ कहते हैं । भौतिक या श्राधिभौतिक परिग्रह की दुर्भद्य ग्रंथि को जिन्होंने भेद डाला हो, जिनकी आत्मा पर भज्ञान या कषाय की कालिमा लेशमात्र भी नहीं रही हो इसी कारण जो स्फटिक मणि से भी अधिक स्वच्छ हो गई हो, वही 'निम्रन्थ ' पद को प्राप्त करता है ।
प्रत्येक काल में, प्रत्येक देश में और प्रत्येक परिस्थिति में निग्रंथों का ही उपदेश सफल और हितकारक हो सकता है । यह उपदेश सुमेरु की तरह अटल, हिमालय की तरह संताप निवारक-शांति प्रदायक, सूर्य की तरह तेजस्वी और अज्ञानान्धकार का हरण करने वाला, चन्द्रमा की तरह पीयूष-वर्षण करने वाला और श्राह्लादक, सुरतरु की तरह सकल संकल्पों का पूरक, विद्युत की तरह प्रकाशमान् ,और श्राकाश की भांति अनादि अनन्त और असीम है । वह किसी देशविशेष या कालविशष की सीमाओं में श्रावद्ध नहीं है। परिस्थितियां उसके पथ को प्रतिहत नहीं कर सकती। मनुष्य के द्वारा कल्पित कोई भी श्रेणी, वर्ण-जाति पांति या वर्ग उसे विभक्त नहीं कर . सकता । पुरुष हो या स्त्री, पशु हो या पक्षी, सभी प्राणियों के लिए वह सदैव समान है-सब अपनी अपनी योग्यता के अनुसार उस उपदेश का अनुसरण कर सकते हैं। संक्षेप में कहें तो यह कह सकते हैं कि निग्रंथों का प्रवचन सार्व है, सार्वजनिक है, सार्वदेशिक है, सार्वकालिक हैं और सर्वार्थ साधक है।
निग्रंथों का प्रवचन आध्यात्मिक विकास के क्रम और उसके साधनों की सम्पूर्ण और सूक्ष्म से सूक्ष्म व्याख्या हमारे सामने प्रस्तु करता है। श्रात्मा क्या है ? श्रात्मा में कौन-कौन सी और कितनी शक्तियाँ है ? प्रत्यक्ष दिखलाई देने वाली श्रा. त्माओं की विभिन्नता का क्या कारण है ? यह विभिन्नता किस प्रकार दूर की जा सकती है ? नारकी और देवता, मनुष्य और पशु आदि की आत्माओं में कोई मौलिक विशेषता है या वस्तुतः वे समान-शक्तिशाली है ? श्रात्मा की अधस्तम अवस्था
क्या है ? आत्म विकास की चरम सीमा कहां विश्रान्त होती है ? श्रात्मा के अतिरिक्त परमात्मा कोई भिन्न है या नहीं? यदि नहीं तो फिन उपायों से-किन साधनाओं से श्रात्मा परमात्म पद पा सकता है ? इत्यादि प्रश्नों का सरल, सुस्पष्ट और संतोषप्रद समाधान हमें निग्रंथ-प्रवचन में मिलता है ? इसी प्रकार जगत क्या है ? वह अनादिया सादि ? नादि गहन समस्याओं का निराकरण भी हम निम्रन्थ-प्रवचन्न