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जन्म के संस्कार और दूसरा कारण शायद माता-पिता की धर्मनिष्टा थी। आपके माता पिता भी धर्मानुरागी और आचारपरायण थे। बालक, माता-पिता से केवल शारीरिक संगठन एवं आकृति ही ग्रहण नहीं करता अपितु संस्कार भी बहुलता से ग्रहण करता है । अतएव संतान को धर्मनिष्ठ बनाने के लिए माता-पिता का धर्मनिष्ठ होना अत्यावश्यक है।
___ एक बार आपकी माताजी ने आपके समक्ष दीक्षा ग्रहण करने की अपनी भावना प्रकट की। यह भावना सुनकर आपको अत्यन्त प्रसन्नता हुई और साथ ही आपने स्वयं भी दीक्षा ग्रहण करने का भाव प्रकट कर दिया । इसके पश्चात आपको दीक्षा लेने में अनेकानेक विघ्न उपस्थित हुए, फिर भी आपने अपनी दृढ़ता से उनपर विजय प्राप्त की और यद्यपि आपका विवाह हुए सिर्फ दो ही वर्ष व्यतीत हुए थे, फिर भी आपने वैराग्य पूर्वक संवत् १६५२ में कविवर सरलस्वभावी मुनि श्री हीरालालजी महाराज से मुनिदीक्षा धारण करली।
. धन्य है यह वैराग्य ! धन्य है यह ज्वलंत अनासक्ति ! धन्य है यह दृढ़ता ! ऐसे संयमशील मुनिराज धन्य हैं !
प्रचार संवत् १६५२ में दीक्षा लेने के पश्चात् से लगाकर अबतक आपने न केवल जैनं समाज का वरन् अभेद भावना से सर्वसाधारण जनता को जो महान उपकार किया है उसका वर्णन करना संभव नहीं है । इस कथन में जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है कि. अर्वाचीन जैन इतिहास में मुनि श्री चौथमलजी महाराज का धर्मप्रचारक के रूप में बहुत ही उच्च आसन है । आपने इस ध्येय के लिए असाधारण प्रयास किया है और प्रयास के अनुकूल असाधारण ही सफलता आप को प्राप्त हुई है।
पता नहीं, आप के साधारण शब्दों में भी क्या जादू रहता है कि उपदेश का प्रत्येक शब्द कान के रास्ते अन्तर तक जा पहुंचता है और एक अपूर्व श्राह्लाद उत्पन्न करता है । जिस समय आप अपने प्रभावशाली शब्दों में उपदेश की वर्षा करते हैं तब श्रोता चित्रलिखित से रह जाते हैं मानो किसी उद्भुत रस का पान करने में तल्लीन हो रहे हों। श्रोता अपनी सुधबुध भूलकर आप के उपदेशामृत का ऐसी तन्मयता के साथ पान करते हैं कि हजारों की उपस्थिति होने पर भी एकदम सन्नाटा छाया रहता है।
आप जैन तत्वों के और जैनेतर सिद्धान्तों के ज्ञाता-विद्वान हैं, फिर भी व्याख्यान के शब्दों में अपना पाण्डित्य भरकर श्रोताओं के कान में जबर्दस्ती नहीं ठंसते। आपकी भाषा सरल, सुबोध एवं सर्वसाधारण जनता के लिए होती है । गंभीर से गंभीर बात को सरल भाषा में प्रकट कर देना ही पाण्डित्य का प्रमाण है और यह प्रमाण श्री