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श्री जैन सिद्धान्त वाले संग्रह, छठा भाग
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कर्म का बंध होता है।
(8) निरतिचार शुद्ध सम्यक्त्व धारण करने से जीव के तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।
(१०) ज्ञानादिका यथा योग्य विनय करने से जीव तीर्थकर नाम कर्म बाँधता है।
(११) भार पूर्वक शुद्ध आवश्यक प्रतिक्रमण आदि कर्तव्यों का पालन करने से जीव के तीर्थकर नामकर्म का बंधहोता है।
(१२) निरतिचार शील और व्रत यानी मूल गुण, और उत्तरगुणों का पालन करने वाला जीव तीर्थकर नामकर्म वॉधता है।
(१३) सदा संवेग भावना एवं शुम धान का सेवन करने से जीव तीर्थकर नाम कर्म बॉधता है।
(१४) यथाशक्ति वाह्य तप एवं आस्वन्तर तप करने से जीव के तीर्थंकर नामकर्म का बंध होता है।
(१५) सुपात्र को साधुजनोचित्त प्रासुक अशनादि का दान देने से जीव के तार्थकर नामकर्म का बंध होता है।
(१६) आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान; नवदीक्षित धामिक, कुल, गण, संघ, इन की भावभक्ति पूर्वक वैयावृत्य करने से जीव तोर्थकर नाम कर्म बांधता है। यह प्रत्येक चैयावृत्त्य तेरह प्रकार का है । (१) आहार लाकर देना (२) पानी लाकर देना (३) आसन देना (४) उपकरण की प्रतिलेखना करना (५) पैर पूजना (६)वरत्र देना (७)औषधि देना (E)मार्ग में सहायता देना (६) दुष्ट, चोर आदि से रक्षा करना (१०)उपाश्रय में प्रवेश करते हुए ग्लान या वृद्ध साधु का दण्ड [लकड़ी] ग्रहण करना(११-१३) उच्चार, प्रश्रवण एवं श्लेष्म के लिये पात्र देना।
(१७) गुरु आदि का कार्य सम्पादन करने से एवं उनका मन प्रसन्न रखने से जीव तीर्थंकर नाम कर्म वॉधता है ।