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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग
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के समान है। जैसे मदिरा पीने से मनुष्य को हित, अहित एवं भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता उसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा को हित, अहित एवं भले बुरे का विवेक नहीं रहता। यदि कदाचित् अपने हित अहित की परीक्षा कर सके तो भी वह जीव मोहनीय कर्म के प्रभाव से तदनुसार आचरण नहीं कर सकता । इसके मुख्यतः दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय ।
जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझना दर्शन है यानी तत्वार्थ श्रद्धान को दर्शन कहते हैं । यह आत्मा का गुण है । आत्मा के इस गुण की घात करने वाले कर्म को दर्शन मोहनीय कहते हैं।
जिसके आचरण से यात्मा अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर सके वह चारित्र कहलाता है, यह भी आत्मा का गुण है । इस गुण को बात करने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। ___ दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं-मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय । मिथ्यात्व मोहनीय के दलिक अशुद्ध है, मिश्र मोहनीय के अर्द्ध विशुद्ध हैं और सम्यक्त्व मोहनीय के दलिक शुद्ध होते हैं। जैसे चश्मा ऑखों का आवारक होने पर भी देखने में रुकावट नहीं डालता उसी प्रकार शुद्ध दलिक रूप होने से सम्यक्त्व मोहनीय भी तत्वार्थ श्रद्धान में रुकावट नहीं करता परन्तु चश्मे की तरह वह अावरण रूप तो है ही । इसके सिवाय सम्यक्त्व मोहनीय में अतिचारों का सम्भव है तथा औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व के लिये यह मोह रूप भी है । इसीलिये यह दर्शनमोहनीय के भेदों में गिना गया है। इन तीनों का स्वरूप इसी ग्रन्थ के प्रथम भागबोल नं०७७ में दिया है। __ चारित्रमोहनीय के दो भेद है-कपाय मोहनीय और नोकपाय मोहनीय । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाय हैं । अनन्तानुवन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के