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श्री सेठिया जैनग्रन्थमाली श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह (६) चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह (७) घाणेन्द्रिय अर्थावग्रह (८) रसनेन्द्रिय अर्थावग्रह (8) स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह (१०) नोइन्द्रिय (मन) अर्थावग्रह (११) श्रोत्रेन्द्रिय ईहा (१२) चक्षुरिन्द्रिय ईहा (१३) प्राणेन्द्रिय ईहा (१४) रसनेन्द्रिय ईहा (१५) स्पर्शनेन्द्रिय ईहा (१६) नोइन्द्रिय ईहा (१७) श्रोत्रेन्द्रिय अवाय (१८)चक्षुरिन्द्रिय अवाय (१६)घाणेन्द्रिय अवाय (२०)रसनेन्द्रिय अवाय (२१) स्पर्शनेन्द्रिय अवाय (२२) नोइन्द्रिय अवाय (२३) श्रोत्रेन्द्रिय धारणा (२४) चक्षुरिन्द्रिय धारणा (२५) घ्राणेन्द्रिय धारणा (२६) ररानेन्द्रिय धारणा (२७) स्पर्शनेन्द्रिय धारणा (२८) नोइन्द्रिय धारणा।
मतिज्ञान के उपरोक्त अट्ठाईस मूल भेद हैं। इन अट्ठाईस भेदों में प्रत्येक के निम्नलिखित बारह भेद होते हैं:----
(१) बहु (२) अल्प (३) बहुविध (४ एकविध (५) क्षिण (६) अक्षिप्र-चिर (७) निश्रित (८) अनिश्रित (8) सन्दिग्ध (१०) असन्दिध्ध (११) ध्रुव (१२) अध्रुव । इनकी व्याख्या इसी ग्रन्थ के चौथे भाग में बोल नं. ७८७ में दी गई है। __ इस प्रकार प्रत्येक के बारह भेद होने से मतिज्ञान के २८४ १२-३३६ भेद हो जाते हैं। उपरोक्त सर भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के हैं । अश्रुतनिश्रित मनिज्ञान के चार भेद हैं-(१) औत्पत्तिकी बुद्धि (२) वैनयिकी (३) कार्मिकी (8) पारिणामिकी । ये चार भेद और मिलाने से मतिज्ञान के कुल ३४० भेद हो जाते हैं। जहाँ ३४१ भेद किये जाते हैं वहाँ जाति स्मरण का एक भेद
और माना जाता है। (समवायाग २८) (कर्म ग्रन्थ पहला गाथा ४-५) ६५१-मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियाँ
जो कर्म आत्मा को मोहित करता है अर्थात् आत्मा को हित अहित के ज्ञान से शून्य बना देता है वह मोहनीय है। यह कर्म मदिरा