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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(२७) शत सहस्त्र (एक लाख)-किसी जगह एक परिव्राजक रहता था। उसके पास चांदी का एक बड़ा पात्र था। परिव्राजक बड़ा कुशाग्र बुद्धि था। वह एक बार जो बात सुन लेता था वह उसे ज्यों की त्यों याद हो जाती थी। उसे अपनी तीव्र बुद्धि का का बड़ा, गर्व था । एक बार उसने वहाँ की जनता के सामने यह प्रतिज्ञा की यदि कोई मुझे अश्रुत पूर्व (पहले कभी नहीं सुनी हुई) बात सुनावेगा तो मैं उसे यह चांदी का पात्र इनाम में दूंगा।
परिव्राजक की प्रतिज्ञा सुन कई लोग उसे नई बात सुनाने के लिये आये किन्तु कोई भी चाँदी का पात्र प्राप्त करने में सफल न हो सका। जो भी नई बात सुनाता वह परित्राजक को याद होजाती और वह उसे ज्यों की त्यों वापिस सुना देता और कह देता कि यह बात तो मेरी सुनी हुई है।
परिव्राजक की यह प्रतिज्ञा एक सिद्धपुत्र ने सुनी। उसने लोगों से कहा-यदि परिव्राजक अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहे तो मैं अवश्य उसे नई बात सुना दूंगा। आखिर राजा के सामने वे दोनों पहुँचे और जनता भी बड़ी तादाद में इकट्ठी हुई । सिद्धपुत्र की ओर सभी की दृष्टि लगी हुई थी। राजा की आज्ञा पाकर सिद्धपुत्र ने परिव्राजक को उद्देश्य करके निम्नलिखित श्लोक पढ़ा
तुझ पिया मह पिउणा, धारेइ अरगुणगं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देसु ॥
अर्थ-मेरे पिता तुम्हारे पिता में पूरे एक लाख रुपये माँगते हैं। अगर यह बात तुमने पहले सुनी है तो अपने पिता का कर्ज चुका दो और यदि नहीं सुनी है तो चाँदी का पात्र मुझे दे दो।
सिद्धपुत्र की बात सुन परिव्राजक बड़े असमञ्जस में पड़ गया। निरुपाय हो उसने हार मान ली और प्रतिज्ञानुसार चांदी का पात्र सिद्धपुत्र को दे दिया। यह सिद्धपुत्र की औत्पत्तिकी बुद्धि थी। (नन्दी सूत्र टीका सू० २७ गा०६२-६५ तक) (नन्दीसूत्र पू० श्री हस्तीमलजी
म. द्वारा सशोधित व अनुवादित)