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श्री जैन सिद्धान्त वोल संवह छठा भाग
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और उसमें रस्सी बांध दी। उसी रस्सी को साथ लेकर वह तालाब के किनारे किनारे चारों ओर घूमा। ऐसा करने से बीच का स्तम्भ रस्सी से बंध गया । उसकी बुद्धिमत्ता पर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। राजा ने उसे अपना मन्त्री बना दिया । स्तम्भ को वांधने की उस पुरुप को औत्पत्तिकी बुद्धि थी।
(१३) तुल्लक-किसी नगर में एक परिवाजिका रहती थी। वह प्रत्येक कार्य में बडी कुशल थी। एक समय उसने राजा के सामने प्रतिज्ञा की-देव ! जो काम दूसरे कर सकते हैं वे सभी मैं कर सकती हूँ। कोई काम ऐसा नहीं है जो मेरे लिये अशक्य हो।
राजा ने नगर में परित्राजिका की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध में घोषणा करवा दी। नगर में भिक्षा के लिये घूमते हुए एक लुल्लक ने यह घोपणा सुनी । उसने राजपुरुषों से कहा-मैं परिवाजिका को हरा दूंगा । राजपुरुषों ने घोषणा बन्द कर दी और लौट कर राजा से निवेदन कर दिया ।
निश्चित समय पर चुल्लक राजसभा में उपस्थित हुआ। उसे देख कर मुँह बनाती हुई परिवाजिका अवज्ञापूर्वक कहने लगी-इससे किस कार्य में बराबरी करना होगा। क्षुल्लक ने कहा-जो मैं करूँ वही तुम करती जाओ । यह कह कर उसने अपनी लंगोटी हटा ली । परित्राजिका ऐसा नहीं कर सकी। बाद में क्षुल्लक ने इस प्रकार पेशान किया कि कमलाकार चित्र बन गया। परित्राजिका ऐसा करने में भी असमर्थ थी। परिवाजिका हार गई और वह लज्जित हो राज सभा से चली गई। क्षुल्लक की यह औत्पत्तिकी बुद्धि थी।
(१४) मार्ग-एक पुरुप अपनी स्त्री को साथ ले, रथ में बैठ कर दूसरे गॉव को जा रहा था। रास्ते में स्त्री को शरीर चिन्ता हुई । इसलिये वह रथ से उतरी । वहाँ व्यन्तर जाति की एक देवी रहती थी। वह पुरुष के रूप सौन्दर्य को देख कर उस, पर