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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला गर्भ के तीन मास पूरे होने पर, अच्युत देवलोक से चव कर आये हुए महापुण्यशाली गर्भस्थ आत्मा के प्रभाव से, नन्दा को यह दोहला उत्पन्न हुा-क्या हो अच्छा हो कि श्रेष्ठ हाथी पर सवार हो मैं सभी लोगों को धन का दान देती हुई अभयदान हूँ अर्थात् भयभीत प्राणियों का भय दूर कर उन्हें निर्भय बनाऊँ । जब दोहले की बात नन्दा के पिता को मालूम हुई तो उसने राजा की अनुमति लेकर उसका दोहला पूर्ण करा दिया । गर्भकाल पूर्ण होने पर नन्दा की कुक्षि से एक प्रतापी और तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। दोहले के अनुसार बालक का नाम अभयकुमार रखा गया। बालक नन्दन बन के वृक्ष की तरह सुखपूर्वक बढ़ने लगा। यथासमय विद्याध्ययन कर बालक सुयोग्य बन गया।
एक समय अभयकुमार ने अपनी मां से पूछा-मां ! मेरे पिता का क्या नाम है और वे कहाँ रहते हैं ? मां ने आदि से लेकर अन्त तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया तथा भीत पर लिखा हुश्री परिचय भी उसे दिखा दिया । सब देख सुन कर अभयकुमार ने समझ लिया कि मेरे पिता राजगृह के राजा हैं । उसने सार्थ के साथ राजगृह चलने के लिये मां के साथ सलाह की। मां के हां भरने पर वह अपनी मां को साथ लेकर सार्थ के साथ राजगृह की ओर रवाना हुआ । राजगृह पहुंच कर उसने अपनी मां को शहर के बाहर एक बाग में ठहरा दिया और आप स्वयं शहर में गया ।
शहर में प्रवेश करते ही अभयकुमार ने एक जगह बहुत से लोगों की भीड़ देखी । नजदीक जाकर उसने पूछा कि यहाँ पर इतनी भीड़ क्यों इकट्ठी हो रही है ? तब राजपुरुषों ने कहाइस जल रहित कुए में राजा की अंगूठी गिर पड़ी है। राजा ने यह आदेश दिया है कि जो व्यक्ति वाहर खड़ा रह कर ही इस अंगूठी को निकाल देगा उसको बहुत बड़ा इनाम दिया जायगा।