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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
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का विवाह रत्नाकर के साथ होने का स्वप्न देखा था । प्रतीत होता है, वास्तव में वही यह रत्नाकर है। ऐसा सोच कर सेठ श्रेणिक के पास आया और विनय पूर्वक हाथ जोड़कर पूछने लगा - महाभाग ! आप किसके यहाँ पाहुने पधारे हैं ? श्रेणिक ने जवाब दियाअभी तो आप ही के यहाँ आया हूँ । श्रेणिक का यह उत्तर सुन कर सेठ बहुत प्रसन्न हुआ । आदर और बहुमान के साथ श्रेणिक को वह अपने घर ले गया और आदर के साथ उसे भोजन कराया। श्रेणिक वहीं रहने लगा ।
श्रेणिक के पुण्य प्रताप से सेठ के यहाँ प्रतिदिन धन की वृद्धि होने लगी । कुछ दिन बीतने पर शुभ मुहूर्त में सेठ ने अपनी पुत्री का विणिक के साथ कर दिया। श्रेणिक नन्दा के साथ सुखपूर्वक रहने लगा । कुछ समय पश्चात् नन्दा गर्भवती हुई। यथाविधि गर्भ का पालन करती हुई वह समय व्यतीत करने लगी।
श्रेणिक के चले जाने से राजा प्रसेनजित को बड़ी चिन्ता रहती थी। नौकरों का भेज कर उसने इधर उधर श्रेणिक की बहुत खोज करवाई | किन्तु कहीं पता न लगा । अन्त में उसे मालूम हुआ कि श्रेणिक वेन्नाट शहर चला गया है । वहाँ किसी सेठ की कन्या से उसका विवाह हो गया है और वह वहीं सुखपूर्वक रहता है ।
एक समय राजा प्रसेनजित अचानक बीमार हो गया । अपना अन्त समय समीप देख उसने श्रेणिक को बुलाने के लिये सवार भेजे । बेनातट पहुँच कर उन्होंने श्रेणिक से कहा- राजा प्रसेनजित थापको शीघ्र बुलाते हैं । पिता की आज्ञा को स्वीकार कर श्रेणिक ने राजगृह जाना निश्चय किया । अपनी पत्नी नन्दा को पूछ कर श्रेणिक राजगृह की ओर रवाना हो गया । जाते समय अपनी पत्नी की जानकारी के लिये उसने अपना परिचय भींत के एक भाग पर लिख दिया ।