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श्री सेठिया जैन अन्धमाला था। उसकी माँ मकान में सोई हुई थी। अर्द्ध रात्रि के समय रोहक यकायक चिल्लाने लगा-पिताजी ! उठिये। घर में से निकल कर कोई पुरुप भागा जा रहा है। भरत एक दम उटा और बालक से पूछने लगा-किधर ? बालक ने कहा-पिताजी ! वह अभी इधर से भाग गया है। बालक की बात सुन कर भरत को अपनी स्त्री के प्रति शंका हो गई। वह सोचने लगा स्त्री का आचरण ठीक नहीं है। यहां कोई जार पुरुष पाता है। इस प्रकार स्त्री को दुराचारिणी समझ कर भरत ने उसके साथ सारे सम्बन्ध तोड़ दिये। यहां तक की उसने उसके साथ सम्भापण करना भी छोड़ दिया। इस प्रकार निष्कारण पति को रूठा देख कर वह समझ गई कि यह सब करामात बालक रोहक की ही है। इसको प्रसन्न किये बिना मेरा काम नहीं चलेगा। ऐसा सोचकर उसने प्रेम पूर्वक अनुनय विनय करके और भविष्य में अच्छा व्यवहार करने का विश्वास दिला कर बालक रोहक को प्रसन्न किया। रोहक ने कहा-माँ ! अब मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि तुम्हारे प्रति पिताजी की अप्रसन्नता शीघ्र ही दूर हो जायगी। -
एक दिन वह. पूर्ववत् अपने पिता के साथ सोया हुआ था कि अर्द्ध रात्रि के समय, सहसा चिल्लाने लगा-पिताजी ! उठिये । कोई पुरुप घर में से निकल कर बाहर जा रहा है । भरत एकदम .उठा और हाथ में तलवार लेकर कहने लगा-चतला, वह पुरूप कहाँ है ? उस जार पुरुप का सिर मैं अभी तलवार से काट डालता हूं। बालक ने अपनी छाया दिखाते हुए कहा-यह वह पुरुष है। भरत ने पूछा-क्या उस दिन भी ऐसा ही पुरुष था ? बालक ने कहा-हाँ । भरत सोचने लगा-बालक के कहने से व्यर्थ ही (निर्णय किये बिना ही) मैंने अपनी स्त्री से अप्रीति का व्यवहार किया । इस प्रकार पश्चात्ताप करके वह अपनी स्त्री से पूर्ववत् प्रेम करने लगा।