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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
बड़ा तपस्वी हूँ इस प्रकार अभिमान् न करे तथा अपने ही मुँह से अपनी प्रशंसा न करे | अर्थ की गहनता अथवा और किसी कारण से श्रोता यदि उसके उपदेश को न समझ सके तो उसकी हँसी न करे । साधु को किसी को आशीर्वाद न देना चाहिए । (२०) प्राणियों की हिंसा की शंका से पाप से घृणा करने वाला साधु किसी को आशीर्वाद न दे तथा मन्त्र विद्या का प्रयोग करके अपने संयम को निःसार न बनावे | साधु लाभ, पूजा या सत्कार आदि की इच्छा न करे तथा हिसाकारी उपदेश न दे ।
(२१) जिससे अपने को या दूसरे को हास्य उत्पन्न हो ऐसा वचन साधु न बोले तथा हॅसी में भी पापकारी उपदेश न दे । छः काय के जीवों का रक्षक साधु प्रिय और सत्य वचन का उच्चारण करे | किन्तु ऐसा सत्य वचन जो दूसरे को दुःखित करता हो, न कहे। पूजा सत्कार पाकर साधु मान न करे, न अपनी प्रशंसा करे । कषाय रहित साघु व्याख्यान के समय लाभ की अपेक्षा न करे ।
(२२) सूत्र और अर्थ के विषय में शंका रहित भी साधु कभी निश्चयकारी भाषा न बोले । किन्तु सदा अपेक्षा वचन कहे । धर्माचरण में समुद्यत साधुओं के बीच रहता हुआ साधु दो 'भाषाओं यानी सत्य और व्यवहार भाषा का ही प्रयोग करे तथा सम्पन्न और दरिद्र सभी को समभाव से धर्मकथा सुनावे |
(२३) पूर्वोक्त दो भाषाओं का आश्रय लेकर धर्म की व्याख्या करते हुए साधु के कथन को कोई बुद्धिमान पुरुष ठीक ठीक समझ लेते हैं और कोई मन्दबुद्धि पुरुष उस अर्थ को नहीं समझते अथवा विपरीत समझ लेते हैं । साधु उन मन्द बुद्धि पुरुषों को मधुर और कोमल शब्दों से समझावे किन्तु उनकी हँसी या निन्दा न करे। जो अर्थ संक्षेप में कहा जा सकता है उसे व्यर्थ शब्दाडम्बर से विस्तृत न करे । इसके लिए टीकाकार ने कहा है