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श्री जैन सिद्धान्न बोल संग्रह, छठा भाग २३३ स्थावर प्राणी रहे हुए हैं उनकी यतना पूर्वक किसी प्रकार हिसा न करता हुआ साधु संयम का पालन करे तथा मन से भी उनके प्रति द्वेष न करता हुआ संयम में दृढ़ रहे ।
(१५) साधु अवसर देख कर श्रेष्ठ आचार वाले प्राचार्य महाराज से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न करे और सर्वज्ञ क आगम का उपदेश देने वाले प्राचार्य का सन्मान करे। आचार्य की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करता हुआ साधु उनके द्वारा कहे हुए सर्वज्ञोक्त मोक्ष मार्ग को हृदय में धारण करे । (१६) गुरु की आज्ञानुसार कार्य करता हुआ साधु मन, वचन और काया से प्राणियों की रक्षा करे क्योंकि समिति और गुप्ति का यथावत् पालन करने से ही कर्मों का क्षय और शान्ति लाभ होता है । त्रिलोकदर्शी, सर्वज्ञ देवों का कथन है कि साधु को फिर कमी प्रमाद का सेवन न करना चाहिए । (१७) गुरु की सेवा करने वाला विनीत साधु उत्तम पुरुषों का आचार सुन कर और अपने इष्ट अर्थ मोक्ष को जान कर बुद्धिमान् और सिद्धान्त का वक्ता हो जाता है । सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग का अर्थी वह साधु तप और शुद्ध संयम प्राप्त कर शुद्ध आहार से निर्वाह करता हुआ शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। (१८) गुरु की सेवा में रहने वाला साधु धर्म के मर्म को समझ कर दूसरों को उपदेश देता है तथा त्रिकालदशी होकर वह कर्मों का अन्त कर देता है । वह स्वयं संसार सागर से पार होता है
और दूसरों को भी संसार सागर से पार कर दता है। किसी विषय में पूछने पर वह सोच विचार कर यथार्थ उत्तर देता है।
(१६) किसी के प्रश्न पूछने पर साधु शास्त्र के अनुकूल उत्तर दे किन्तु शास्त्र के अर्थ को छिपावे नहीं और उत्सूत्र की प्ररूपणा न करे अर्थात् शास्त्रविरुद्ध अर्थ न कहे । मैं बड़ा विद्वान् हूँ, मैं