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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
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चयछक्क मिंदियाणं च निग्गहो भावकरण सच्चं च । खमया विरागया वि य, मण माईणं निरोहो य ॥ कायाण छक्क जोगाण जुनया वेयणा हियासणया । तह मारणंतिया हियासणया य एए अणगार गुणा ॥
भावार्थ-(१-५) अहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों का सम्यक् पालन करना । (६) रात्रिभोजन का त्याग करना । (७-११) श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घाणेन्द्रिय रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय इन पॉच इन्द्रियों को वश में रखनाअर्थात् इन्द्रियों के इष्ट विषयों की प्राप्ति होने पर उनमें रागन करना और अनिष्ट रिपयों से द्वेप न करना। (१२)भाव सत्र अर्थात् अन्तःकरण की शुद्धि (१३) करण सत्य, अर्थात् वस्त्र, पात्र आदि की प्रतिजेखना तथा अन्य वाह्य क्रियाओं को शुद्ध उपयोग पूर्वक करना (१४) क्षमा-क्रोध और मान का निग्रह अर्थात् इन दोनों को उदय में ही न आने देना (१५) विरागता-निर्लोभता अर्थात् माया और लोभ को उदय में ही न आने देना (१६)मन की शुभ प्रवृत्ति (१७) वचन की शुभ प्रवृत्ति (१८) काया की शुभ प्रवृत्ति (१६-२४) पृथ्वीकाय, अष्काय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और उसकाय रूप छः काय के जीवों की रक्षा करना (२५) योग सत्य-मन, वचन और काया रूप तीन योगों की अशुभ प्रवृत्ति को रोक कर शुभ प्रवृत्ति करना (२६) वेदनातिसहनता शीत, ताप आदि वेदना को समभाव से सहन करना (२७) मारणान्तिकातिसहनता-मृत्यु के समय आने वाले कष्टो को समभाव से सहन करना और ऐसा विचार करना कि ये मेरे कल्याण के लिये हैं।
समवायांग सूत्र में सत्ताईस गुण ये हैं-पॉच महाव्रत, पाँच इन्द्रियों का निरोध, चार अपायों का त्याग, भाव मत्य, करण सत्य, योग सत्य, क्षमा, विगगता, मन समाहरणता, वचन समा