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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
श्रुत) (१२) उपवाइ (१३) रायप्पसेणी (१४) जीवाभिगम (१५) पन्नवणा (१६) जम्बूद्वीप परणत्ति (१७) चन्दपएणति (१८) सूरपएणत्ति (१६)निरयावलिया (२०)कप्पवडंसिया(२१)पुफिया (२२) पुष्पचूलिया (२३) पण्हिदसा ।
नोट-ग्यारह अङ्ग और बारह उपाङ्ग का विषय परिचय इसी ग्रन्थ के चतुर्थ भाग के बोल नं० ७७६-७७७ में दिया गया है।
सदा काल जिन सित्तर बोलों का आचरण किया जाता है वे चरणसप्तति (चरणसत्तर) कहलाते हैं। वे ये हैं
वय समणधम्म संजम वेयावच्चं च बंभगुत्तीओ।
नाणाइतियं तव कोहणिग्गहा इइ चरणभेयं ॥ अर्थ-पाँच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सत्रह सयम, दस प्रकार का यावच्च, नव ब्रह्मचर्य गुप्ति, रत्नत्रय-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, बारह प्रकार का तप, क्रोध, मान, माया, लोभ का निग्रह ।
नोट-पाँच महाव्रत,रत्नत्रय और चार कपाय का स्वरूप इसी ग्रन्थ के प्रथम भाग में क्रमशः बोल नं०३१६,७६,१५८में दिया गया है। बारह तप का स्वरूप दूसरे भाग के बोल नं०४७६और ४७८ में व तीसरे भाग के बोल नं. ६६३ में दिया गया है। दस श्रमण धर्म, दस वैयावृत्य और नव ब्रह्मचर्य गुप्ति का वर्णन तीसरे भाग में क्रमशः बोल नं०६६१,७०७ और ६२८ में और सत्रह संयम का वर्णन पाँचवें भाग के बोल नं० ८८४ में दिया गया है।
प्रयोजन उपस्थित होने पर जिन सित्तर बोलों का आचरण किया जाता है वे करणसप्तति (करण सत्तरि) कहलाते हैं। वे ये हैंपिण्ड विसोही समिई भावण पडिमा य इदियनिरोहो । पडिलेहणगुत्तीरो अभिग्गहा चेव करणं तु ॥
अर्थ--पिण्ड विशुद्धि के चार भेद--शास्त्रोक्त विधि के अनुसार बयालीस दोप से शुद्ध पिण्ड, पात्र, वस्त्र और शय्या ग्रहण करना,