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श्री संठिया जैन ग्रन्थमाला
नहीं है । क्योंकि बादी प्रतिवादी के शब्दों में भी प्रतिज्ञा आदि की समानता तो है ही, इसलिए जिस प्रकार प्रतिवादी (जाति वादी) के शब्दों से ही वादी का खंडन होगा, उसी प्रकार प्रतिवादी का भी खंडन हो जायगा । इसलिए जहाँ जहाँ अविनाभाव हो, वहीं वहीं साध्य की सिद्धि माननी चाहिए, न कि सर जगह ।
(२३) नित्यसमा - अनित्यत्व में नित्यत्व का आरोप करके खंडन करना नित्यसमा जाति है । जैसे शब्द को तुम अनित्य E सिद्ध करते हो तो शब्द में रहने वाला अनित्यत्व नित्य है या अनित्य ? नित्यत्व अनित्य है तो शब्द भी नित्य कहा जाएगा ( धर्म के नित्य होने पर भी धर्मी को नित्य मानना ही पड़ेगा) । यदि
नित्यत्वनित्य है तो शब्द नित्य कहा जा सकेगा। यह असत्य उत्तर है क्योंकि जब शब्द में अनित्यत्व सिद्ध है तो उसी का अभाव कैसे कहा जा सकता है । दूसरी बात यह है कि इस तरह कोई भी वस्तु अनित्य सिद्ध नहीं हो सकेगी। तीसरी बात यह है कि अनित्यत्व एक धर्म है। यदि धर्म में भी धर्म की कल्पना की जायगी तो अनवस्था हो जायगी ।
(२४) कार्यसमा - जाति कार्य को अभिव्यक्ति के समान मानना ( क्योंकि दोनों में प्रयत्न की आवश्यकता होती है) और मिर्फ इतने से ही हेतु का खण्डन करना कार्यसमा जाति है । जैसेप्रयत्न के बाद शब्द की उत्पत्ति भी होती है और अभिव्यक्ति (प्रकट होना) भी होता है फिर शब्द अनित्य कैसे कहा जा सकता है । यह उत्तर ठीक नहीं है क्योंकि प्रयत्न के अनन्तर होना इसका मतलब है स्वरूप लाभ करना। अभिव्यक्ति को स्वरूप लाभ नहीं कह सकते । प्रयत्न के पहले अगर शब्द उपलब्ध होता या उसका त्र्यावरण उपलब्ध होता तो अभिव्यक्ति कही जा सकती थी।
जातियों के विवेचन से मालूम पड़ता है कि इनसे परपक्ष का