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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला www.mmmmmmmmmmmmmmmmm शिष्य अपने आसन पर बैठा बैठा उत्तर न दे किन्तु श्रासन छोड़ कर गुरु की बात को अच्छी तरह सुने और फिर विनय पूक उत्तर देवे।
(२१) बुद्धिमान् शिष्य का कर्तव्य है कि मनोगत अभिप्रायों तथा सेवा करने के समुचित उपायों को नाना हेतुओं से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार जानकर समुचित प्रकार से गुरु की सेवा करे।
(२२) अविनीत को विपत्ति तथा विनीत को सम्पत्ति प्राप्त होती है । जो ये दो बातें जानता है वही शिक्षा को प्राप्त कर सकता है। (२३) जो व्यक्ति क्रोधी, बुद्धि और ऋद्धि का धमण्ड करने वाला, चुगलखोर, साहसी, बिना विचारे कार्य करने वाला, गुरु की आज्ञा नहीं मानने वाला, धर्म से अपरिचित, विनय से अनभिज्ञ तथा असंविभागी होता है उसे किसी प्रकार मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता।
(२४) जो महापुरुष गुरु की आज्ञानुसार चलने वाले, धर्म और अर्थ के जानने वाले तथा विनय में चतुर हैं वे इस संसार रूपी दुरुत्तर सागर को पार करके तथा कर्मों का क्षय करके उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं।
दशवकालिक ६ वा अध्ययन, २ उद्दशा) ६३४-दण्डक चौवीस
स्वकृत कर्मों के फल भोगने के स्थान को दण्डक कहते हैं। संसारी जीवों के चौवीस दण्डक हैं । यथा--
नेरड्या असुराई पुढवाई बेइ दियादओ चेव ।
पंचिदिय तिरिय नरा वितर जोइसिम वेमाणी ।। अर्थ--सात नरकों का एक दण्डक, असुरकुमार आदि दस भवनतियों के दस दण्डक, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पाँच एकेन्द्रियों के पाँच दण्डक, बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन तीन विकलेन्द्रियों के तीन