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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छटा भाग
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अविनीत होने से दासता को प्राप्त हो दुःख भोगते हुए देखे जाते हैं।
(११) इसके विपरीत विनय युक्त देव, यक्ष तया गुह्यक ऋद्धि तथा महायश को प्राप्त करके सुख भोगते हुए देखे जाते हैं ।
(१२) जो प्राचार्य तथा उपाध्याय की शुश्रूषा करता है और आज्ञा पालता है उसकी शिक्षा पानी से सींचे हुए वृक्षो के समान बढ़ती है।
(१३) गृहस्थ लौकिक भोगों के लिए, आजीविका या दूसरो का हित करने के लिए शिल्प तथा लौकिक कलाएं सीखते हैं ।
(१४) शिक्षा को ग्रहण करते हुए कोमल शरीर वाले राजकुमार आदि भी बन्ध, वध तथा भयंकर यातनाओं को सहते हैं।
(१५) इस प्रकार ताड़ित होते हुए भी राजकुमार आदि शिल्प शिक्षा सीखने के लिए गुरु की पूजा करते हैं। उनका सत्कार सन्मान करते हैं। उन्हें नमस्कार करते तथा उनकी श्राज्ञा पालन करते है।
(१६) लौकिक शिक्षा ग्रहण करने वाले भी नव इस प्रकार विनय का पालन करते हैं तो मोक्ष की कामना करने वाले श्रुतग्राही भिनु का क्या कहना १ उसे तो आचार्य जो कुछ कहे, उसका उल्लंघन कभी न करना चाहिए । (१७) शिष्य का कर्तव्य है कि वह अपनी शय्या, गति, स्थान और ग्रासन आदि सब नीचे ही रक्खे। नीचे झुक कर पैरों में नमस्कार करे और नीचे झुक कर विनय पूर्वक हाथ जोड़े।
(१८) यदि कभी असावधानी से प्राचार्य के शरीर या उपकरणों का स्पर्श (संबड्डा) हो जाय तो उसके लिए नम्रता पूर्वक कहे-भगवन् ! मेरा अपराध क्षमा कीजिए, फिर ऐसा नहीं होगा।
(१६) जिस प्रकार दुष्ट बैल बार बार चाबुक द्वारा ताड़ित होकर रथ को खींचता है, इस प्रकार दुबुद्धि शिष्य वार बार कहने पर धार्मिक क्रियाओं को करता है। (२०) गुरु द्वारा एक या अधिक बार बुलाये जाने पर बुद्धिमान