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१७२ श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला होती है। उसमें उतरना साधु को नहीं कल्पता। . . . .
(५) वयक्रिया (वज्रक्रिया) यदि ऊपरी लिखी वसतियों को साधुओं का आचार जानने वाला गृहस्थ अपने लिए बनवावे किन्तु उन्हें साधुओं को देकर अपने लिये दूसरी बनवा लेवे । इस प्रकार साधुओं को देता हुआ अपने लिए नई: नई वसतियाँ बनवाता जाय तो वे सब वसतियाँ वयक्रिया (वज्रक्रिया) वाली. होती है। उनमें ठहरना साधु को नहीं। कल्पता]
(६) महावय॑ क्रिया (महावज्रक्रिया)--श्रमण ब्राह्मण आदि के लिए बनाए गए। मकान में उतरने से महावयं (महावज्र) क्रिया दोष आता है और वह स्थान महावय॑क्रिया (महावज्रक्रिया) वाली वसति माना जाता है। इसमें भी साधु को उतरना नहीं कल्पता।
(७) सावंद्य क्रिया-यदि कोई भोला गृहस्थ या स्त्री श्रमणों के निमित्त मकान/वनवावे तो उसमें उतरने से सावधक्रिया दोष 'लगता है। वह वसति सावधक्रिया वाली होती है। साधु को वहाँ उतरना नहीं कल्पती श्रमण शब्द में पाँच प्रकार के साधु लिये जाते हैं-निर्ग्रन्थ (जैन साधु), शाक्य (बौद्ध), तोपस (अज्ञानी तपस्वी), गेरुक भंगचें कपड़ों वाले), प्राजीवक. (गोशाला के साधु) । . .(८) महासावध क्रिया-यदि गृहस्थ किसी विशेष साधु को लक्ष्य करके पृथ्वी आदि छहों कायों के प्रारम्भ से मकान बनवावे
और वही माधु उसमें आकर उतरे तो महासांवक्रिया दोष है । ऐसी वसति में उतरने वाला नाम मात्र से साधु है, वास्तव में वह गृहस्थ,ही है। साधु को उसमें उतरना नहीं कल्पता। ,,
६) अल्पक्रिया-जिस मकान को गृहस्थ अपने लिए बनवावे, संयम की रक्षा के लिए अपने कल्पानुसार यदि साधु वहाँ जाकर उतरें तो वह अल्पक्रिया वाली अर्थात निर्दोष वसति है। उसमें उतरना सीधु को कल्पता है। ..
(आचारांग श्रु० ३ ० १ ० २ ०२)