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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, कुंठा भाग
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(८) अविज्ञातार्थ - ऐसे शब्दों का प्रयोग करना कि उनका अर्थ तीन बार कहने पर भी प्रतिवादी तथा सभ्यों में से कोई भी नं समझ सके अविज्ञातार्थ है । जैसे- जङ्गल के राजा के आकार वाले के खाद्य के शत्रु का शत्रु यहाँ है । जङ्गत्ते का राज़ो शेर, उसके आकार बोला बिलाव, उसका खाद्य सूपके, उसका शत्रु 'सर्प, 'उसका शत्रु मोर
(६) पार्थक पूर्वापर सम्बन्ध को छोड़कर अंड बैंड बना पार्थक है। जैसे - कलकत्ते में पानी वरसा, कौयों के दाँत नहीं होते, बम्बई बड़ा शहर है, यहाँ दस वृक्ष लगे हुए हैं, मेरा कोट बिगड़ गया इत्यादि । यह एक प्रकार का निरर्थक ही है । : (१०) प्राप्तकाल - प्रतिज्ञां श्रादि का बेसिलमिले प्रयोग करना । (११) पुनरुक्त - अनुवाद के सिवाय शब्द और अर्थ का फिर कहना । (१२ अननुभाषण - वादी ने किसी बात को तीन बार कहा, परिषद् ने उसे समझ लिया, फिर भी यदि प्रतिवादी उसका अनुवाद न कर सके तो वह अननुभाषण है ।
(१३) श्रज्ञाद-बादी के वक्तव्य को सभा समझ जाय, किन्तु प्रतिवादी न समझ सके तो अज्ञान नाम का निग्रहस्थान है । (१४) अप्रतिभा - उत्तरं न सूझना अप्रतिभा निग्रहस्थान है । (१५) पर्यनुयोज्योपेक्ष-विपक्ष के निग्रह प्राप्त होने पर भी यह न कहना कि तुम्हारा निग्रह हो गया है, पर्यनुयोज्योपेक्षण है । - (१६) निरनुयोज्यानुयोग - निग्रहस्थान में न पड़ा हो फिर भी उसका निग्रह बतलाना निरनुयोज्यानुयोग है ।
(१७) विक्षेप - अपने पक्ष को कमजोर देखकर चोत को उड़र देना विक्षेप है। जैसे- अपनी हार होती देखकर कहने लगना, 'अभी मुझे काम है फिर देखा जायगा आदि । किसी आकस्मिक घटना से अगर विक्षेप हो तो निग्रहस्थान नहीं माना जाता ।