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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
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रखते हैं जिसका वे भोजन कर सकें। आगे के लिए बचाकर कुछ नहीं रखते। (१२) निरंप्रेशर - भोजन या तापने आदि. किसी भी प्रयोजन के जिये वे अग्नि का सहारा नहीं लेते। अथवा. निरग्निस्मरण अर्थात अग्नि का कभी सोशन करने वाले होते हैं । (१३) संप्रक्षालित-साधुधर्म सभी प्रकार के पार रूपी मैल से रहित होता है । (१४) त्यक्तदोष - साधुधर्म में रोगादि दोषों का सर्वथा परिहार होता है । (१५) गुणग्राहिक - मा. धर्म में गुणों, से अनुरोग किया जाता है । (१६) निर्विकार - इसमें इन्द्रिय विकार नहीं होते । (१७) निवृत्तिलक्षण- सभी सांसारिक कार्यों से निवृत्ति साधुधर्म का लक्षण है । (१८) पञ्चमहात्रतयुक्त - यह पांच महाव्रतों से युक्त है । (१९) असनिधिसञ्चय - साधु धर्म में न किसी प्रकार का लगाव होता है और न सश्चन अर्थात् धन-धान्य- आदि का संग्रह | (२०) विसंवादी - साधु धर्म में किसी प्रकार का विसंवाद अर्थात् असत्य या धोखा नहीं होता । (२१) संसारपारगामी - यह संसार "सागर" से पार उतारने वाला है (२२) निर्वाणगर्म नपर्यवसान फल - साधु धर्म का अन्तिम प्रयोजन मोक्ष प्राप्ति है।. (धर्मसग्रह अधिकार. ३ श्लो. २७ ५.६१ यति प्रतिक्रमण पाक्षिकसूत्र)
६-२०- परिषह बाईस..
आपत्ति आने पर भी संयम में स्थिर रहने के लिये तथा कमां की निर्जरा के लिए, जो शारीरिक तथा मानसिक कष्ट - साधु साध्वियों को सहने चाहिए उन्हें परिषह कहते हैं । वे बाईस हैं} क्षुधापरिषह-- भूख का परिषह । संयम की मर्यादानुसार निर्दोष आहार न मिलने पर मुनियों को भूख का कष्ट सहना, चाहिए, किन्तु मर्यादा का उल्लवन न करना चाहिए ।. (२) पिपासा परिषद प्यास को परिषह । (३) शीतं परिषह ठंड का परिषह ।