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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
उपक्रम है। अपवर्तनीय आयु अधूरा ही टूट जाता है, इसलिए वहाँ शस्त्र आदि की नियमतः आवश्यकता पड़ती है। अनपवर्तनीय
आयु बीच में नहीं टूटता। उसके पूरा होते समय यदि शस्त्र आदि निमित्त प्राप्त हो जायँ तो उसे सोपक्रम कहा जायगा, यदि निमित्त प्राप्त न हों तो निरुपक्रम ।
शंका- अपवर्तनीय आय में नियत स्थिति से पहले ही जीव की मृत्यु मानने से कृतनाश, अकृतागम और निष्फलता दोष होंगे, क्योंकि आयु बाकी है और जीव मर जाता है, इससे किये हुए कर्मों का फलभोग नहीं हो पाता। अतएव कृतनाश दोष हुआ। मरण योग्य कर्म न होने पर भी मृत्यु आजाने से अकृतागम दोष हुआ। अवशिष्ट बंधी हुई आयु का भोग न होने से वह निष्फल रही, अतएव निष्फलता दोष हुआ।
समाधान- अपवर्तनीय आयु में बंधी हुई आयु का भोग न होने से जो दोष बताए गए हैं, वे ठीक नहीं हैं। अपवतेनीय आयु में बंधी हुई आयु पूरी ही भोगी जाती है। बद्धाय का कोई अंश ऐसा नहीं बचता जो न भोगा जाता हो । यह अवश्य है कि इसमें बंधी हुई आयु कालमर्यादा के अनुसार न भोगी जा कर एक साथ शीघ्र ही भोग ली जाती है । अपवर्तन का अर्थ भी यही है कि शीघ्र ही अन्तर्मुहूर्त में अवशिष्ट कर्म भोग लेना। इसलिए उक्त दोषों का यहाँ होना संभव नहीं है । दीर्घकालमर्यादा वाले कर्म इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त में ही कैसे भोग लिए जाते हैं ? इसे समझाने के लिए तीन दृष्टान्त दिए जाते हैं(१) इकट्ठी की हुई सूखी तृणराशि के एक एक अवयव को क्रमशः जलाया जाय तो उस तृणराशि के जलने में अधिक समय लगेगा, परन्तु यदि उसी तृणराशि का बंध ढीला करके चारों तरफ से उसमें आग लगादी जाय तथा पवन भी अनुकूल