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श्री सेठिया जैन प्रन्यमाला
स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम का निमित्त पाकर होने वाला सुख का अनुभव सापेक्ष है। मनोज्ञ शब्दादि विषयों के बिना भी सातावेदनीय कर्म के उदय से जीव जो सुख का उपभोग करता है वह निरपेक्ष अनुभाव है। तीर्थडूर के जन्मादि के समय होने वाला नारकी का सुख ऐसा ही है। . असातावेदनीय कर्म का अनुभाव भी भाठ प्रकार का है(१) अमनोज्ञ शब्द (२) अमनोज्ञ रूप (३) अमनोज्ञ गन्ध (४) अमनोज्ञ रस (५) अमनोज्ञ स्पर्श (६) अस्वस्थ मन (७) अभव्य (अच्छी नहीं लगने वाली) वाणी और दुःखी काया। ___ असातावेदनीय का अनुभाव भी परतः और स्वतः दोनों तरह का होता है । विष, शस्त्र, कण्टकादि का निमित्त पाकर जीव दुःख भोगता है। अपथ्य आहार रूप पुद्गलपरिणाम भी दुःखकारी होता है। अकाल में अनिष्ट शीतोष्णादि रूप स्वाभाविक पगलपरिणाम का भोग करते हुए जीव के मन में असमाधि होती है और इससे वह असाता को वेदना है। यह परतः अनभाव हुआ। असातावेदनीय कमे के उदय से बाह्य निमित्तों के न होते हुए भी जीव के असाता का भोग होता है, यह स्वतः अनुभाव जानना चाहिए। (४) मोहनीयकर्म-जो कर्मात्मा को मोहित करता है अर्थात् भले बुरे के विवेक से शून्य बना देता है वह मोहनीय कर्म हैं। यह कर्म मद्य के सदृश है । जैसे शराबी मदिरा पीकर भले बुरे का विवेक खो देता है तथा परवश हो जाता है। उसी प्रकार मोहनीय कर्म के प्रभाव से जीव सत् असत् के विवेक से रहित होकर परवश हो जाता है । इस कर्म के दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय समकित का घात करता है और चारित्रमोहनीय चारित्र का। मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्र