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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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दुःख न पहुँचाया जाय, इन्हें शोक न कराया जाय जिससे ये दीनता दिखाने लगें, इनका शरीर कृश हो जाय एवं इनकी खों से आँसू और मुँह से लार गिरने लगें, इन्हें लकड़ी आदि ताड़ना न दी जाय तथा इनके शरीर को परिताप अर्थात् क्लेश न पहुँचाया जाय। ऐसा करने से जीव सातावेदनीय कर्म बांधता है । सातावेदनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव सातावेदनीय कर्म बाँधता है ।
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इसके विपरीत यदि प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर अनुकम्पा भाव न रखे, इन्हें दुःख पहुँचावे, इन्हें इस प्रकार शोक करावे कि ये दीनता दिखाने लगें, इनका शरीर कृश हो जाय, आँखों से आँसू और मुँह से लार गिरने लगें, इन्हें लकड़ी आदि से मारे और इन्हें परिताप पहुँचावे तो जीव असातावेदनीय कर्म Sairat है । सातावेदनीय कार्मण शरीर प्रयोग नामक कर्म के उदय से भी जीव असातावेदनीय कर्म बाँधता है।
सातावेदनीय कर्म का अनुभाव आठ प्रकार का है- मनो शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस, मनोज्ञ स्पर्श, मनः सुखता अर्थात् स्वस्थ मन, सुखी वचन अर्थात् कानों को मधुर लगने वाली और मन में आह्लाद (हंर्ष) उत्पन्न करने वाली वाणी और सुखी काया (स्वस्थ एवं नीरोग शरीर ) ।
यह अनुभव परत: होता है और स्वतः भी। माला, चन्दन यदि एक या अनेक पुद्गलों का भोगोपभोग कर जीव सुख का अनुभव करता है । देश, काल, नय और अवस्था के अनुरूप आहार परिणाम रूप पुगलों के परिणाम से भी जीव साता का अनुभव करता है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गल परिणाम, जैसे वेदना के प्रतिकार रूप शीतोष्णादि का निमित्त पाकर जीव सुख का अनुभव करता है। इस प्रकार पुद्गल, पुद्गलपरिरणाम और