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श्री. सेठिया जैन प्रन्थमाला
अर्थात्- या तो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनी चाहिए या युद्ध में ही प्राण दे देने चाहिएं । कुलीन पुरुष को मामूली आदमियों की बातें कभी नहीं सहनी चाहिए। किसी महात्मा ने और भी कहा हैलज्जां गुणौघजननीं जननीमिवाऽऽर्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमनपि संत्यजन्ति सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ अर्थात् माता की तरह गुणों को पैदा करने वाली, श्रेष्ठ तथा अत्यन्त शुद्ध हृदय वाली लज्जा को बचाने के लिए तेजस्वी पुरुष हँसते हँसते सुख पूर्वक प्राणों को छोड़ देते हैं । सत्य पालन करने में दृढ पुरुष अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ते ।
युवक ने गाथा का मतलब समझा। युद्ध में लड़ते हुए कुछ सम्मानित तथा प्रसिद्ध योद्धा मुँह फेरने लगे उसी समय किसी ने ऊपर की गाथा द्वारा कहा- युद्ध से भागते हुए आप लोग शोभा नहीं देते | योद्धा लोग वापिस लौट आए। शत्रु सेना पर टूट पड़े। उसके पैर उखड़ गए। राजा ने उन सब योद्धाओं को सन्मान दिया। सभी लोग उनकी वीरता का गान करने लगे ।
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गाथा का भावार्थ समझने के बाद उसे ध्यान आया- संयम भी एक प्रकार का युद्ध है । यदि मैं इससे भागूँगा तो साधारण लोग अवहेलना करेंगे। वह लौट आया। आलोचना तथा प्रतिक्रमण के बाद वह आचार्य की इच्छानुसार चलने लगा । ( ६ ) निन्दा - आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ कर्मों को बुरा समझना निन्दा है । निन्दा के लिए दृष्टान्त
किसी नगर में एक राजा रहता था। एक दिन उस के मन में आया सभी राजाओं के यहाँ चित्रशाला है । मेरे पास नहीं है। उसने एक बहुत बड़ा विशाल भवन बनवाया और