________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
समय उसे मार डाला। दूसरा वहीं खड़ा होकर कहने लगासरकार ! मुझे यह मालूम नहीं था, इसीलिए चला आया। मुझे मारिए मत । जैसा आप कहेंगे मैं करने को तैयार हूँ। उन्होंने कहा अगर इन्हीं पैरों पर पैर रेखते हुए वापिस चले आओगे तब छोड़ दिए जाओगे । वह डरता हुआ वैसे ही बाहर निकल
आया और छोड़ दिया गया । वह सुख से जीवन बिताने लगा। यह द्रव्य प्रतिक्रमण हुआ। भाव में इस दृष्टान्त का समन्वय इस प्रकार होता है- तीर्थङ्कर रूपी राजा ने संयम रूपी महल की रक्षा करने का हुक्म दिया। उस संयम की किसी साधुरूपी ग्रामीण ने विराधना की । उसे राग और द्वेष रूपीरक्षकों ने मार डाला और वह चिरकाल तक संसार में जन्म मरण करता रहेगा।
जो साधु किसी तरह प्रमादवश होकर असंयम अवस्था को प्राप्त तो हो गया किन्तु उस अवस्था से संयम अवस्था में लौट आवे
और असंयम में फिर से प्रवृत्ति न करने की प्रतिज्ञा कर ले तो वह निर्वाण अर्थात् मुक्ति का अधिकारी हो जाता है।। (२) प्रतिचरणा-संयम के सभी अङ्गों में भली प्रकार चलना अर्थात् संयम को सावधानतापूर्वक निर्दोष पालना प्रतिचरणा है।
एक नगर में एक बहुत धनी सेठ रहता था। उसने एक महल बनवाया, वह रत्नों से भरा था। कुछ समय के बाद महल की देखरेख अपनी स्त्री के ऊपर छोड़ कर वह व्यापार के लिए बाहर चला गया। स्त्री अपने वेशविन्यास और शङ्गार सजने में लगी रही। मकान की परवाह नहीं की। कुछ दिनों बाद उसकी एक दीवार गिर गई। स्त्री ने सोचा, इतने से क्या होता है ? थोड़े दिनों के बाद दूसरी दीवार में पीपल का पेड़ उगने लगा । स्त्री ने फिर सोचा, इस छोटे से पोधे से क्या होगा ? पीपल के बढ़ने से दीवार फट गई और महल गिर गया।